कथा आयाम कहानी

प्रेम विद्या

राजकुमार गौतम II

हरनाथ के लिए घर लौटना भी क्या किसी पराक्रम से कम था ! घर लौटना एक विवश अनिवार्यता थी हरनाथ के लिए, मानो कोई फूहड़ काम करने जा रहा हो । अनभाता, अनिच्छित काम । यह विरोधाभास लग सकता है कि अच्छे-खासे सुरुचिपूर्ण ढंग से सजे-सँवरे लंबे-चौड़े अपने फ़्लैट में हरनाथ क्यों नहीं जाना चाहता ? मगर यह सच है कि यह घर अब हरनाथ को छलावा लगने लगा है, जहाँ पहुँचकर वह जादुई पत्थरों में तिलिस्म बंद हो जाता है। घर में अधिकतम आधुनिक सुविधाओं की चीजें उपलब्ध हैं, जो उसने अपने दिन-रातों को एक करके जुटाई हैं। सुकल्पित दृष्टि से उस से घर को मनोरम बनाने में हरनाथ की पत्नी रसिका का योगदान कम रहा हो, ऐसी भी कोई बात नहीं । बल्कि शादी के बाद कुछ दिनों तक तो हरनाथ-रसिका ने मिलकर भरपूर आनंद उड़ाया था । कैसे सुखवंत वर्ष थे । वे दोनों आपस में खुले-बँधे थे तो जिंदगी कैसी आभूषित लगती और अब हाल यह है कि दोनों का जीवन श्रीहीन हो गया, नंगा बूचा । दोनों के मध्य के नियम पत्र कब अप्रभावी हो जाते, उस आकस्मिकता को पकड़ पाना मुश्किल था । वे दोनों गृहस्थ आश्रम से लौटकर ब्रह्मचर्य में आ जाते। रसिका अपनी गृहलक्ष्मी की भूमिका को छोड़ एक ज्वलंत पहेली बन जाती । बच्चे उन दोनों की रणनीति के आधार बन जाते और दुष्कामनाओं की चींटियाँ हरावल दस्ते की तरह घर में कड़कड़ातीं । हरनाथ-रसिका के बीच यह ऐसा मुक़दमा होता, जिसकी सुनवाई भी उन्हें खुद करनी पड़ती और निर्णय भी स्वयं ही जारी करने पड़ते ।

‘मैं कहाँ ग़लत हूँ ?’-यह सवाल हरनाथ बार-बार पूछता अपने आप से । ऐसा क्या किया है कि रसिका उसे कभी निरपराध घोषित नहीं ही करती है। और क्षमाहीनता की वैसी विकट संपन्नता क्यों है रसिका के पास-यह बात भी हरनाथ को समझ में नहीं आती है। यह कुछ ऐसा दंड है जो प्रायश्चित्त और बहिष्कृत के भालों से मिलकर बना है और इसे भोग रहा है हरनाथ, बल्कि वे दोनों । उन दोनों के बीच पिछले दो हफ़्तों से अबोला चल रहा है। घर धीरे-धीरे जानलेवा फंदा बनता जा रहा है, मानो एक घर का अपहरण हो गया है। दो सह-अपराधियों के बीच निरपराधी बच्चे ठगाई का शिकार हो रहे हैं। घर में उपद्रव है।

ऐसे में यदि हरनाथ का घर लौटने का मन नहीं होता तो अस्वाभाविक क्या ? रसिका के मन में जब भी यौद्धिकता जागती तो हरनाथ के सामने वह एक नाम, एक बार ही उच्चारती-अर्चना और बस, युद्धारंभ हो जाता। अर्चना का नाम रसिका के लिए आसन्न समस्या का संकटमोचन भी हो सकता था और युद्धघोष भी । हरनाथ को अर्चना का नाम सुनना कर्णप्रिय तो लगता, मगर तब नहीं जबकि रसिका के द्वारा बोला गया हो। अर्चना उसकी प्रेमिका रही थी, यह सही है। मगर वह बात ‘एक बार की बात है’ की तर्ज़ पर अपना देशकाल अमूर्त कर चुकी थी। हरनाथ ने रसिका को सैकड़ों बार समझाया था कि अर्चना अब उसकी देवसूची में है। यह भी कि अर्चना से उसका संपर्क तो रहा, मगर संसर्ग नहीं। वह वैसा समय था भी नहीं कि अपने मध्य के दिव्य प्रेम-प्रसंग को वे शरीर के स्तरों पर ले आते । हरनाथ के जीवन में अर्चना एक दीक्षा की तरह अवतरित हुई थी। हरनाथ आज जो भी कुछ प्राप्त कर सका है-उसमें अर्चना-युग की इस दीक्षा का घना महत्त्व है। प्रीति की अद्भुत रीति थी, जो अर्चना के व्यवहार ने हरनाथ को सिखाई थी । वह शरारत से कहती, “पता है डियर ! मेरी सहेलियाँ आपको देखकर क्या कहती हैं ?”

”क्या कहती हैं ?” पूछता हरनाथ । ‘हर…नाथ’ कहकर वे मेरी ओर इशारा करती हैं।”

अर्चना यह कहकर लज्जा से लाल हो उठती थी। हर और नाथ को हमजोली बनाकर प्रस्तुत करना अर्चना के मन की निजी उपज थी, यह बात हरनाथ जानता था। मगर अर्चना थी कि सहचरी से क्रमश: सजनी बनती जा रही थी ।

हरनाथ-अर्चना के प्रेम प्रसंगों में कोई विशिष्टता थी तो यही कि अर्चना को देखने, उसे छूने, उसे प्रेम पत्र लिखने, उसके साथ बातें करने, उसे संबोधित करने, उसे वर्णित करने, उसकी स्मृति को कल्पना में साकार करने आदि-आदि में जब भी हरनाथ संलग्न होता तो उसे लगता कि वह पहले वाला हरनाथ न रहकर, कुछ और बेहतर हरनाथ हो गया है। उसे लगता कि वह अपनी त्रुटियों को खो रहा है। निकृष्टता उससे हर पल झरती जा रही थी और हरनाथ का मानो पुनर्वास हो रहा था। अर्चना की सुंदरता, हरनाथ में वासना नहीं, एक प्रकार का आराधना-भाव जगाती । आत्मानुशासन और संयम का जैसा प्रभावशाली पाठ हरनाथ ने उस दौरान पढ़ा, वैसा तो फिर कभी देखा न सुना। व्यवहार में यह भले ही प्रेम-प्रसंग हो, मगर हरनाथ की कल्पना में तो यह एक साक्षात् चलचित्र था । अर्चना एक भव्य प्रतिमा थी और हरनाथ स्वयं को उसके योग्य सिद्ध करने की साधना में लगा था । प्रेम-कथाओं की पीठिका में ऐसा अनुभव किसी को हुआ हो, हरनाथ को पता नहीं। अर्चना भी कोई स्थिर चित्र नहीं थी । वह जीवंत थी । चाहती थी कि उसका होने वाला पति, ‘हर नाथ’ के अतिरिक्त भी बहुत कुछ हो। वह एक परिपूर्ण समाचार हो, जिसे पूरा ब्रह्मांड जानने को आतुर हो”और हरनाथ ठीक वैसा ही बनना चाहता । वह अर्चना की इच्छा के अनुरूप उत्तीर्ण हो रहा है, इस बात का पता तब लगा जब एक पत्र में अर्चना ने उसे ‘मेरे देवता’ लिखकर संबोधित किया था ।

हरनाथ को अपने लिए ‘मेरे राजा’, ‘प्राण’, ‘डियर एच इ आर’, ‘ओ मेरे अपने’ आदि-आदि संबोधनों को अर्चना के प्रेम-पत्रों में पढ़ने की आदत थी। मगर ‘मेरे देवता’ संबोधन ने उसे खुश कर दिया। उसे लगा मानो वह दिव्य हो उठा है। ”इस देवत्व को मैं सँभालकर रखूँगा, मेरी अच्चू !” हरनाथ ने यह बात अपनी डायरी को लिखकर बताई थी ।

और फिर अच्चू ने ही हरनाथ को भिंचे कंठ से कहा था कि वह अन्यत्र शादी करने जा रही है। यदि वह उससे सच्चा प्रेम करता था तो उसे भविष्य में कभी ब्लैकमेल न करे और हो सके तो उसे माफ़ भी कर दे । इस सुरहीन समाचार ने तब हरनाथ को बेदम कर दिया था। ”तुमने हमेशा मेरी बात मानी है डियर ! एक बार और सिद्ध कर दो कि बड़े अपराध को भी क्षमा किया जा सकता है।” कहा था अर्चना ने |

सच्चाई और सफाई से रहकर, ‘न दैन्यम् न पलायनम्’ की राह पर चलने का जो पाठ अर्चना ने सिखाया, वही तो जीवन की लौ बन गई हरनाथ की। उसके बाद प्रेमकाल का सीखा हुआ कीर्तन तो अनवरत साथ रहा, मगर फिर कभी हरनाथ ने अर्चना को नहीं देखा न सपने में, न यथार्थ में ।

आज भी रसिका के मुँह से अर्चना के लिए भदेस शब्द निकलते हैं तो हरनाथ कॉप जाता है। अर्चना बहुत कुछ बनकर समाई हुई है हरनाथ के भीतर। आज अर्चना पता नहीं पतली ही है या थुलथुला गई है ? बाल रँगती है या नहीं ? उसके बच्चों की शादी-वादी हुई या नहीं ? कहाँ, किस शहर में है ? कुछ भी तो पता नहीं हरनाथ को। यह सब जानने की माशा-भर इच्छा भी नहीं है उसे। मगर फिर भी जिस रूप में अर्चना उसमें टँकी है वह नहीं चाहता कि कोई उस पवित्र और अन्यतम अर्चना की छवि को छुए ।

और रसिका इसी अर्चना पर वार करती है बार-बार । तिलमिला जाता है हरनाथ । रसिका को लगता है कि अर्चना आज भी इस हरामजादे के दिल की रानी है। वह कहती है कि उसी के साथ क्यों नहीं शादी की उसने ? हरनाथ समझा ही नहीं सकता रसिका को । उसने कई बार बताने का प्रयास किया रसिका को कि उस साढ़े पाँच फुटी अति सुंदरी अर्चना से वह परिचित नहीं था। उसका परिचय तो उस लौ से था, जो अर्चना के साथ ने उसे सौंपी थी। उसी ज्योति से परिचय आज भी है। आज वह जो भी कुछ है, यह उसी लौ की रोशनी है। इस लौ से वंचित हो जाने पर हरनाथ में भला क्या शेष रह जाएगा ?

घर में साक्षात् श्मशान था । रसिका ने हरनाथ को आते देख स्वयं को कहीं छिपा लिया था । हरनाथ ने कुछ देर पत्रिकाएँ पलटीं और फिर चाय बनाकर पी। फिर बाहर निकल गया । उसे मालूम है कि वह बाहर निकलेगा तभी रसिका रसोई में घुसकर कुछ फटाफटनुमा खाना तैयार करेगी और बच्चों को खिलाकर फिर से किसी हड़िया में छिप जाएगी ।

बाहर से लौटा तो वैसा ही सब था। बस, फर्क इतना था कि उसके लिए खाने की थाली को मेज़ पर ढककर छोड़ दिया गया था। इसका मतलब है कि इन पंद्रह दिनों की चुप्पी ने रसिका की असहायता में फाँक डाल दी है। हरनाथ सोचता कि उनके बीच सशरीर अर्चना कहीं नहीं है। फिर भी वैसा क्या है कि रसिका उसकी अनाकार उपि को भी बर्दाश्त नहीं कर पाती है ! स्वयं को कई बार टटोलकर देखा है हरनाथ ने कि क्या वह वास्तव में अर्चना को आज भी प्रेम करता है, तो दबे कंठ से ‘नहीं’ की आवाज़ आती है। फिर भी अपने इस निर्मित व्यक्तित्व में अर्चना की उपस्थिति को वह अनदेखा नहीं कर पाता। ऐसी एकप्राणता पर रसिका का आघात वह सहन नहीं कर पाता है। पता नहीं वह क्यों अलगौझा चाहती रहती है ? इस बार भी तो कुछ ख़ास नहीं हुआ था। था केवल इतना ही कि चाय हरनाथ बनाई थी । वाकई बहुत अच्छी बन गई थी चाय । कई बार संयोग भी होता है। रसिका ने घूँट भरा और छल से मुस्कराकर बोली- ”आज तो चाय बहुत बढि़या बनाई है।” ”तुम भी मुझसे सीख लो !” हरनाथ की टिप्पणी में तंज था । ”तुमने तो सीखा होगा न उसी अपनी चहेती से !” रसिका तुरंत ही अर्चना तक दौड़ गई थी ।

“उससे सीखना था तो कुछ और ना सीखता !” हरनाथ फट पड़ा। और फिर वे दोनों एक अवैध युद्ध में शरीक हो गए थे। हर बार लगभग वैसा ही होता था ।

रात सब कुछ ख़ामोश था। मगर नींद से दूर हरनाथ के मन में झंझावात थे। समाधानों का मरुस्थल उसके प्राण सुखा रहा था। तभी साथ लेटी रसिका की सिसकी उसे सुनाई पड़ी । वह ख़ामोश पड़ा रहा। सिसकी निरंतर तेज होती जा रही थी । उससे रहा न गया तो वह रसिका के निकट हो गया। सहारा पाकर रसिका का मानो उपवास भंग हो गया और वह पिघलकर हरनाथ की ‘एच इ आर’ बन गई ।
पिछले कुछ दिनों से रसिका-हरनाथ दोनों ही ‘अनाहारी’ थे। शीघ्र ही वे गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर गए । सहचर होकर जीने में कितना आनंद है भला-यह बात रसिका पता नहीं क्यों बार-बार भूल जाती थी । वह इस समय स्वयं समर्पयिता थी । रसिका की सिसकियाँ क्रमश: विलुप्त हो गई थीं ।

”आपस में प्रेम और विश्वास से रहो तो जीवन में बहुत-से चमत्कार हम अर्जित कर सकते हैं, रसिका !” विभोर हरनाथ ने कहा था ।

”हाँ, सचमुच ! लेकिन एक बात बताओ-कितना भी क्लेश हो, न तुम कभी गहरे
में नाराज़ होते हो और न ही मुझसे कभी प्रतिशोध लेते हो ! इतना बड़ा दिल है तुम्हारा !”
रसिका ने कहा और उसे लगा कि वह किसी संन्यासी की बाँहों में है।
‘यह सब मुझे मेरी अच्चू ने सिखाया है रसिका !’ हरनाथ ने कहना चाहा, मगर कहा नहीं ।
अँधेरे में हरनाथ के मुँह से निकली सर्द आह की आहट को रसिका ने साफ़-साफ़ सुना था ।

About the author

राजकुमार गौतम

राजकुमार गौतम
जन्म: 2 अप्रैल, 1954 कनखल (हरिद्वार)।
शिक्षा: बी०ए० (मेरठ विश्वविद्यालय) ।

प्रकाशन : कहानी-संग्रह 'काले दिन' (1981),
'उत्तरार्द्ध की मौत' (1985), 'आधी छुट्टी
का इतिहास (1986/1995). दूसरी
आत्महत्या' (1987), 'आक्रमण तथा अन्य
कहानियाँ' (1990) उपन्यास : ऐसा
सत्यव्रत ने नहीं चाहा था' (1985/1998)
व्यंग्य-संग्रह : 'वरच' (1989/1997).
'अंगरेज़ी की रँगरेज़ी' (1994) संपादन
'आठवें दशक के कहानीकार (1977)
तथा 'सीपियाँ' (1980) (कहानी-संग्रह)।
नाट्य रूपांतर 'सूत्रगाचा' (मूल मनीषराय )
(1986) सहयोगी कृतियाँ: 'अंतर्याण'
(इण्टरव्यूज) (1988). 'सामना' (कहानियाँ)
(1988) (धीरेन्द्र अस्थाना तथा बलराम के
साथ) ।

सम्मान :

आधी छुट्टी का इतिहास हिंदी अकादमी,
दिल्ली द्वारा (1986) और 'आक्रमण तथा
अन्य कहानियाँ' उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान
द्वारा (1990)।

अन्य हिंदी की विविध विधाओं के संपादित संकलनों
में कहानियाँ, व्यंग्य, लघुकथाएँ, कविताएँ
आदि संकलित । उपन्यास 'ऐसा सत्यव्रत
ने नहीं चाहा था कुछ समय तक ओसाका
विश्वविद्यालय (जापान) के पाठ्यक्रम में
शामिल पिछले लगभग 25 वर्षों से
पुस्तक समीक्षा के क्षेत्र में भी सक्रिय ।
फिलहाल दिल्ली में।

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