संस्मरण

अलविदा अलबेली

चित्र : साभार गूगल

“मुझे लग रहा था कि केवल हँसने या नमस्ते जैसे हिमोजी से काम नहीं चलेगा कुछ और करना पड़ेगा तब अलबेली नाम की एक ऐसी लड़की को जन्म दिया जिसके साथ ललमुनिया नाम की एक चिड़िया है। यह चिड़िया अलबेली का मन है। अलबेली के साथ चिड़िया दिखाने का कारण यही था कि अलबेली अकेली नहीं है। मैं किसी महिला को अकेले नहीं दिखाना चाहती। मैं चाहती हूँ कि जब भी कोई महिला परेशानी में हो तो उसके साथ ललमुनिया जैसी कोई महिला साथ हो।”
~अपराजिता शर्मा

संजय स्वतंत्र II

शाम का समय और मैं हमेशा की तरह अपने काम में व्यस्त। तभी फोन की घंटी बज उठी। यह कवयित्री डॉ सांत्वना श्रीकांत का फोन था। उन्होंने अलबेली के इस संसार से विदा लेने की खबर दी। अलबेली यानी डॉ. अपराजिता। कौन नहीं जानता था उन्हें। क्या लेखक और पत्रकार और क्या साहित्यकार। यहां तक कि नई पीढ़ी के लड़के और लड़कियों में भी अपनी हिमोजी के कारण चर्चित थीं अपराजिता। सोशल मीडिया पर हिंदी जमात से जुड़ा का हर व्यक्ति जानता था उन्हें।

मेरी लास्ट कोच की नायिका के बारे में एक दिन उन्होंने कहा था इसका नाम मेरे जैसा ही है, मगर यह मेरे से भी तेज लगती है। आपकी अपराजिता पेशे से डॉक्टर है। लोगों का इलाज करती है। मैं ठहरी साहित्य की डॉक्टर। लोगों के मन का इलाज करती हूं। यह कहते हुए वे हंस पड़ी थीं। 

बहुत संक्षिप्त मुलाकात थी हमारी। मगर संदेश का आदान प्रदान होता था। वे पहले से अस्वस्थ थीं। मगर उनके चेहरे पर कभी किसी ने शिकन नहीं देखी । हम सभी ने उन्हें हमेशा मुस्कुराते ही पाया। कोई गम या कोई पीड़ा हरा नहीं पाई। वे चुपचाप अपना काम करती जाती थीं। मगर इस तरह से अचानक चली जाएंगी, किसी ने सोचा न था। सचमुच दिल ने धोखा दे दिया। हृदयगति रुक जाने से 15 अक्तूबर को उनका निधन हो गया।   

डॉ. अपराजिता दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित कालेज में बरसों से हिंदी साहित्य पढ़ा रही थीं। मगर वे कैरेक्टर इलस्ट्रेटर के रूप में विख्यात हो गईं। ऐसा होगा कभी, यह उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था।  सोशल मीडिया पर उनकी अलबेली छाई हुई थी। एक दिन मैंने कहा कि आपकी अलबेली तो हवा में उड़ती फिरती है, तो उनका जवाब था- देखिएगा यह एक दिन आसमान में इंद्रधनुष भी बनाएगी। और यह सच हुआ। अलबेली के माध्यम से उन्होंने स्त्री मन के हर भाव को, हर शेड को अभिव्यक्त किया। इसे वे फेसबुक पर अकसर पोस्ट करती थीं। देखते ही देखते हर कोई अलबेली का प्रशंसक बन गया।  

डॉ अपराजिता ने 2016 में चैट स्टिकर बनाना शुरू किया था, जिसे उन्होंने इमोजी की तर्ज पर हिमोजी नाम दिया। दिलचस्प बात ये कि उन्होंने कैरेक्टर इलस्ट्रेशन का कभी औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लिया। फिर भी चित्रगीत और अलबेली के माध्यम से नारी मन के हर शेड को वे निरंतर प्रस्तुत करती रहीं। सफेद कागज पर उनकी उकेरी रेखाएं बोलती रहीं। हिंदी चैट स्टिकर तो कमाल के साबित हुए। हिमोजी नाम से गूगल पर प्ले स्टोर पर ये स्टिकर आपको मिल जाएंगे। इन्हें काफी संख्या में लोगों ने डाउन लोड किया। 

अपराजिता मानती थीं कि वे एसोसिएट प्रोफेसर नहीं होती तो एक कलाकार ही होतीं। होना यही चाहिए था। बल्कि यही अच्छा रहता। आखिर बचपन से चित्र बनाने का शौक जो था। मगर वे यह भी मानतीं थीं साहित्य पढ़ाने के कारण ही उन्हें अपनी कला को शब्द देने की ताकत मिली। उन्होंने हंसने, उदास होने या नमस्ते या गुड मॉर्निंग वाली हिमोजी बनाने के बाद एक नई अलबेली को जन्म दिया। जिसके साथ ललमुनिया नाम की चिड़िया रहती थी। यह चिड़िया कोई और नहीं एक स्त्री का दिल है। यह चिड़िया अलबेली की सहेली है। उसकी शक्ति है।

अपराजिता की नजर में हर लड़की अलबेली ही थी। वे उसे आजाद ख्याल देखना चाहती थी। इस भावना को अलबेली के माध्यम से उन्होंने कई बार उकेरा।  यही वजह है कि अलबेली कोई गुमसुम लड़की नहीं है। वह नेताओं पर गुस्सा जताती है। सिस्टम पर तंज कसती है। वह कभी सजी-संवरी दिखती है तो कभी गंभीर भी। 

लिहाजा सोशल मीडिया पर उसे खूूब प्यार और आशीर्वाद मिला। और वह वहां अपनी धाक जमाते हुए टेबल कैलेंडर में भी उतर आई। इसका श्रेय अपराजिता को ही जाता है। हर साल-अलग अलग थीम पर अलबेली को उन्होंने प्रस्तुत किया। वे अकसर कहती थीं कि मेरी कला राजेश जोशी जी की कविता की तरह है। अलबेली छोटे से मन को भी आकाश बना लेती है। और किसी सहेली का हाथ पकड़ कर आकाश में उड़ जाती है। उसे सपनों का इंद्रधनुष बनाना बखूबी आता है। 

… माटी का तन माटी में मिल चुका है। डॉ. अपराजिता शर्मा को दिल्ली के निगम बोध घाट पर अंतिम विदाई दी जा चुकी है। उनके प्रशंसक शोक में डूबे हैं। रह-रह कर उनका चेहरा सामने आ रहा है। वही मुस्कुराता हुआ चेहरा। तमाम गमों को मात देता हुआ। उन्हें हर पीड़ा से मुक्ति मिल गई है। अलबेली कोई और नहीं वे खुद थीं। ललमुनिया चिड़िया कोई और नहीं, यह उनका मन था। कागज पर उकेरी गई अलबेली आज बहुत उदास है। उसकी सखी उसका हाथ छुड़ा कर बहुत दूर चली गई है, फिर कभी न लौटने के लिए। यह भी कोई उम्र थी जाने की डॉ अपराजिता। आपका यों अचानक चले जाना मुखर होते हिंदी समाज के लिए गहरी क्षति है।

About the author

संजय स्वतंत्र

बिहार के बाढ़ जिले में जन्मे और बालपन से दिल्ली में पले-बढ़े संजय स्वतंत्र ने दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज से पढ़ाई की है। स्नातकोत्तर की शिक्षा पूरी करने के बाद एमफिल को अधबीच में छोड़ वे इंडियन एक्सप्रेस समूह में शामिल हुए। समूह के प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक जनसत्ता में प्रशिक्षु के तौर पर नौकरी शुरू की। करीब तीन दशक से हिंदी पत्रकारिता करते हुए हुए उन्होंने मीडिया को बाजार बनते और देश तथा दिल्ली की राजनीति एवं समाज को बदलते हुए देखा है। खबरों से सरोकार रखने वाले संजय अपने लेखन में सामाजिक संवेदना को बचाने और स्त्री चेतना को स्वर देने के लिए जाने जाते हैं। उनकी चर्चित द लास्ट कोच शृंखला जिंदगी का कैनवास हैं। इसके माध्यम से वे न केवल आम आदमी की जिंदगी को टटोलते हैं बल्कि मानवीय संबंधों में आ रहे बदलावों को अपनी कहानियों में बखूबी प्रस्तुत करते हैं। संजय की रचनाएं देश के सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।

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