डॉ. अतुल चतुर्वेदी II
भीगी यादों का मौसम है,
बस्ती में पसरा मातम है।
मजबूरी है तुम कहते हो,
उनका तो यह पेचोखम है।
खुद्दारी के गढ़ पर देखो,
फहराता कैसा परचम है।
जिसकी भी सांसें हैं बाकी,
उसका सुर फिर क्यों मद्धम है।
मंच तले की है सच्चाई,
फटी हुई सबकी जाजम है।
एक कशिश है ऐसी मेरी,
जिसका हर मंजूर सितम है।
जिसको दानिशवर कहते हो,
लूटा उसने ही दमखम है।
vastvikta yahi hai