मनस्वी अपर्णा II
मैं हूं औरत! आज अपना सच बताना है मुझे
मेंहदी की मानिंद पिस के रंग लाना है मुझे
//१//
बोझ कह कर टाल ही सकती नहीं मैं क्या करूं
फर्ज़ तो ताज़िंदगी हंस कर निभाना है मुझे
//२//
मेरे आंचल में हर इक रिश्ते की खातिर है फकत
प्यार की दौलत, जिसे खुल कर लुटाना है मुझे
//३//
मैं कि अनचाहा सा कोई बोझ हूं हर रिश्ते पे
दाग ये माथे से अपने अब मिटाना है मुझे
//४//
फर्ज़ अपने सब निभा कर हक से क्यूं महरूम हूं
जिदगानी अपनी शर्तों पर बिताना है मुझे
//५//