अतुल चतुर्वेदी II
वैसे भी यह मैं, मेरा और मेरे लिए का युग है। व्यष्टि चिंतन की बयार में समष्टि के शिविर और डेरे-तंबू उखड़ रहे हैं। घर फूंक कर तमाशा देखने के दिन लद गए। अब तो दोनों हाथों से घर भरने के दिन हैं। हर तरफ निजी और निजीकरण का शोर है। जो निजी है वही श्रेष्ठ है, वही महान। वही समाज में असरदार। निजता की दीवारें इतनी ऊंची हो गई हैं कि वहां से सिसकियों की तो क्या क्रंदन के स्वर तक भी नहीं आते।
रिश्तों की गर्माहट और ज़िंदादिली को निजता के सर्प ने डंस लिया है। लिहाजा एक आंगन में कई सुलगते मन औपचारिकता का लबादा ओढ़े घूम रहे हैं। मौन, एक दूसरे से कटे-कटे। अहं के कपाटों ने मन की ग्रंथियों के विष को अवरुद्ध कर भाइयों के बीच वैचारिक ‘इंफेक्शन’ बढ़ा दिया है।
निजी सहायक से लेकर निजी ट्रेनर और जिम तक रखने का दौर है यह। जो समर्थ हैं वे निजी अंगरक्षक और विषकन्याएं तक पालते हैं। सेलिब्रेटी तो सोशल मीडिया अकाउंट के लिए निजी एजंट तक रखते हैं। जिनकी मूर्खता और अल्पज्ञता का भांडा कई बार चौराहों पर फूटता रहा है। भाड़े के टट्टूओं से भला कौन युद्ध जीता है कभी?
- रिश्तों की गर्माहट और ज़िंदादिली को निजता के सर्प ने डंस लिया है। लिहाजा एक आंगन में कई सुलगते मन औपचारिकता का लबादा ओढ़े घूम रहे हैं। मौन, एक दूसरे से कटे-कटे। अहं के कपाटों ने मन की ग्रंथियों के विष को अवरुद्ध कर भाइयों के बीच वैचारिक ‘इंफेक्शन’ बढ़ा दिया है।
प्राइवेसी इन दिनों सीक्रेसी पर हावी है। ठहाके बंद हैं, गप्पें स्थगित हैं और संवाद कसमसा रहे हैं मन की गलियों में। निजीपन की फुसफुसाहटों के शोर से शयन कक्ष आबाद हैं। सुना है कुछ बड़े और पेशेवर लेखक एजेंट के साथ-साथ पर्सनल आलोचक भी ‘हायर’ करने की गंभीरता से सोच रहे हैं ताकि वक़्त पड़ने पर विरोधियों पर उनसे ‘फायर’ करवा सकें।
शब्दों की जुगाली से आक्रांत समय में हर किसी को भोंपू चाहिए जो उनकी वैचारिक जूूठन सोशल मीडिया पर बिखेरता रहे। चौपालें सूनी पड़ी हैं, उन्मुक्त सोच के अंखुए कुम्हला गए हैं निजता के पाले से। डर है कि कहीं कोई हम पर पिछड़ेपन का स्टिकर न चस्पा कर दे। संगच्छध्वं की धारणा कराह रही है कोने में पड़ी।
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