अश्रुत पूर्वा विशेष II
कौन है वह हिंदी का कहानीकार जिसे यशपाल ने कभी हिंदी साहित्य का गोर्की कहा। हम आज बात कर रहे हैं सुप्रसिद्ध कथाकार अमरकांत की। बलिया में 1925 में जन्मे इस यशस्वी कहानीकार को मां बाप ने नाम दिया था- श्रीराम वर्मा। निश्चित रूप से उनका संघर्ष भरा जीवन था। बलिया में पढ़ाई के दौरान वे आजादी की लड़ाई से अछूते न रहे। लिहाजा स्वतंत्रता सेनानियों के संपर्क में आए। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीए की पढ़ाई की। फिर जीविकोपार्जन के लिए पत्रकारिता चुनी मगर पत्रकारीय दायित्व निभाते हुए वे साहित्य के मार्ग पर चल पड़े।
कुछ समय के लिए अमरकांत ने आगरा के मशहूर साप्ताहिक पत्र ‘सैनिक’ में काम किया। फिर इलाहाबाद के दैनिक ‘अमृत पत्रिका’ में। इसके बाद माया प्रेस इलाहाबाद में भी उन्होंने काम किया।
अमरकांत ने कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। इस बीच कई कहानियां भी लिखीं, लेकिन कई उम्दा कहानियां लिखने के बावजूद वे काफी समय तक हाशिए पर रहे। इसकी वजह थी। दरअसल, उन दिनों चर्चा के केंद्र में मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेद्र यादव की त्रयी छाई रहती थी। लेकिन कहते हैं न कि एक दिन हर किसी का वक्त आता है। अमरकांत का भी आया। 1955 में उनकी लिखी कहानी डिप्टी कलक्टरी ने उन्हें एक बड़े कहानीकार के रूप में स्थापित कर दिया। यह कहानी सरस्वती प्रेस इलाहाबाद की पत्रिका कहानी द्वारा 1955 में सर्वश्रेष्ठ कहानी के रूप में पुरस्कृत हुई। और उसी पत्रिका के वार्षिक विशेषांक में छपी भी। हालांकि कहानी जिंदगी और जोंक भी खासी चर्चित रहीं।
इसके बाद अमरकांत की जो साहित्य यात्रा शुरू हो गई, वह कभी थमी नहीं। फिर तो एक के बाद एक इनके कई संग्रह सामने आए। इनमें जिंदगी और जोंक, देश के लोग और मौत का नगर चर्चा में रहे। इसके अलावा अमरकांत ने कोई दस-ग्यारह उपन्यास भी लिखे। जिनमें सूखा पत्ता, आकाश पक्षी, सुखजीवी, विदा की रात, लहरें और सुन्नर पांडे की पतोह आदि चर्चित रहे। अमरकांत ने बाल साहित्य और संस्मरण साहित्य भी रचे।
- कहानीकार यशपाल ने अमरकांत को गोर्की क्यों कहा। यह बड़ा सवाल है। जिसका जवाब वही देते हैं-क्या केवल आयु कम होने या हिंदी में प्रकाशित होने के कारण ही अमरकांत गोर्की की तुलना में कम संगत मान लिए जाएं। जब मैंने अमरकांत को गोर्की कहा था, उस समय मेरी स्मृति में गोर्की की कहानी ‘शरद की रात’ थी। उस कहानी ने एक साधनहीन व्यक्ति को परिस्थितियां और उन्हें पैदा करने वाले कारणों के प्रति जिस आक्रोश का अनुभव मुझे दिया था, उसके मिलते-जुलते रूप मुझे अमरकांत की कहानियों में दिखाई दिए।
कोई दो राय नहीं कि अमरकांत प्रेमचंद की परंपरा के सच्चे कहानीकार हैं। प्रेमचंद की तरह ही उनकी कहानियों मेंं भारतीयता दिखती है। अपना देस-गांव दिखता है। वे समय-समय पर चलने वाले कहानी आंदोलनों से दूर रह कर लिखते पढ़ते रहे। इनकी कहानियों में आसपास के जीवन की सच्ची तस्वीरें दिखाई देती हैं। हम उनके कथा संसार में मध्यवर्गीय जीवन भी देख सकते हैं। अमरकांत कथा गढ़ने में पारंगत है। सादगी इनकी कहानियों की जान है। भाषा में भी सादगी दिखाई देती है। यही नहीं उनकी कहानियों का शिल्प भी सीधा-सादा है। वे जटिलता में उलझते नहीं हैं।
भाषा की सृजनात्मकता को लेकर एक बार तो अमरकांत काशी नाथ सिंह से उलझ गए थे। तब उन्होंने उनसे कहा था- बाबू साहब, आप लोग साहित्य में किस भाषा का प्रयोग कर रहे हैं। भाषा, साहित्य और समाज के प्रति कोई दबाव है कि नहीं। अगर आप लेखक कहलाए जाना चाहते हैं तो कृपा कर के सृजनशील भाषा का प्रयोग करें।
कहानीकार यशपाल ने अमरकांत को गोर्की क्यों कहा। यह बड़ा सवाल है। जिसका जवाब वही देते हैं-क्या केवल आयु कम होने या हिंदी में प्रकाशित होने के कारण ही अमरकांत गोर्की की तुलना में कम संगत मान लिए जाएं। जब मैंने अमरकांत को गोर्की कहा था, उस समय मेरी स्मृति में गोर्की की कहानी ‘शरद की रात’ थी। उस कहानी ने एक साधनहीन व्यक्ति को परिस्थितियां और उन्हें पैदा करने वाले कारणों के प्रति जिस आक्रोश का अनुभव मुझे दिया था, उसके मिलते-जुलते रूप मुझे अमरकांत की कहानियों में दिखाई दिए।
बतौर लेखक-पत्रकार और कहानीकार के रूप में अमरकांत का संपूर्ण जीवन बेहद संघर्षपूर्ण रहा। वे बेहद संकोची स्वभाव के थे। आर्थिक अभाव से जूझते रहे। किसी से मदद मांगने में भी हिचकते थे। यहां तक कि कुछ मित्रों ने ही ही उनकी शुरुआती किताबें छपवाई। कहानीकार रवींद्र कालिया लिखते हैं-एक बार बेकारी के दिनों में उन्हें पैसे की सख्त जरूरत थी, पत्नी मरणासन्न पड़ी थीं। ऐसी विषम परिस्थिति में प्रकाशक से ही सहायता की अपेक्षा की जा सकती थी। बच्चे छोटे थे। अमरकांत ने अत्यंत संकोच, मजबूरी और असमर्थता में मित्र प्रकाशक से रॉयल्टी के कुछ रुपए मांगे मगर उन्हें दो टूक जवाब मिल गया, पैसे नहीं हैं। अमरकांत जी ने सब्र कर लिया और एक बेसहारा मनुष्य जितनी मुसीबतें झेल सकता था, चुपचाप झेल लीं। 1954 में अमरकांत को हृदय रोग हो गया। तब से वह एक जबरदस्त अनुशासन में जीने लगे। अपनी लड़Þखड़ाती हुई जिंदगी में अनियमितता नहीं आने दी। तो ऐसे थे अमरकांत।
अमरकांत ने प्रेमचंद की परंपरा को ही आगे बढ़ाया। उन्होंने निम्न वर्ग और मध्य वर्ग के दुख-सुख को अपनी कहानियों का केंद्र जिस तरह बनाया, वह हिंदी समाज को स्वर देता है। उनसे युवा पीढ़ी ने भी काफी कुछ सीखा। साल 2009 में अमरकांत को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उसी साल व्यास सम्मान मिला। उन्हें उपन्यास ‘इन्हीं हथियारे से’ के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला। अमरकांत को सोवियत लैंड पुरस्कार से भी नवाजा गया। वे जीवन के अंतिम समय तक तक रचनारत रहे। 2014 में इलाहाबाद में 80 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। देह छूट गया, मन का पाखी उड़ चला। अमरकांत अपनी कहानियों में धड़कती संवेदना में सदैव जीवित रहेंगे।
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