राधिका त्रिपाठी II
बहुत मुश्किल होता है किसी को जाते हुए देखना। कवयित्री सांत्वना श्रीकांत के शब्दों में कहें तो छूटती हुई चीज प्रिय लगने लगती है। यह सच है। आपके जीवन से जुड़ा कोई इस दुनिया को अलविदा कहने वाला हो, तो दिल करता है कि हम अपनी जिंदगी का एक टुकड़ा उसे दे दें। मगर ऐसा विधान नहीं है। यह मिथ है। पुराणों में इसका जिक्र मिलता है। अलबत्ता, जो आया है वह जाएगा। यही नियम है। मगर जो पल बचे हैं काश उनको ही जी पाते। मगर ऐसा कहां हो पाता है। फिल्म आनंद का किरदार निभा रहे नायक ने यही कहा था कि जिंदगी बड़ी होनी चाहिए लंबी नहीं।
दिल खोल कर परत-दर-परत खुद को उधेड़ कर कुछ कह पाना कितना मुश्किल है। शायद दुनिया का सबसे मुश्किल काम है…। जिसने कंधा आगे करते समय ये तक नहीं सोचा कि इन पर भार कितना और बढ़ेगा। हाथों को अपनी उंगलियों से थामते समय अक्सर ये ख्याल आ जाता है कि काश इनके सारे दुख-दर्द मेरे हो जाते और ये फिर से एक मुस्कान लिए खड़े हो जाते अपने पैरों पर मेरा हाथ छोड़ते हुए। सचमुच छूटती हुई चीज हमें प्रिय लगने लगती है।
फोन करते हुए हाथों का सुन्न हो जाना और उंगलियों का सर्द हो जाना खुद जड़ होकर सामने वाले का हाल-चाल पूछना, आप कैसे है? और जवाब-मैं बहुत ठीक हूं बेटा। आप कैसे हो। …जी मैं भी ठीक हूं मामा आप तो जड़ें हो हमारी। आप ठीक हैं तो मैं भी ठीक हूं। जड़ें जब मजबूत होती हैं तो टहनियां स्वत: ही हरियाती और पुलकित होती रहती हैं।
लेकिन मैं जर्द हो रही… अपोलो हॉस्पिटल में बेड के पास पहुंच कर उन्हें नमस्ते किया। मामा बिस्तर पर लेटे हुए बेहद साधारण इंसान दिखे। असाधारण दर्द की सीने में दबा कर बोले-कौन है राधा, आने में बहुत देर कर दी बेटा तुमने। मैंने अपनी आंखें दूसरी तरफ फेर लीं ताकि वे कहीं पढ़ न ले आंसुओं को। … हां मामा थोड़ा दूर है न, तो आने में देरी हो गई। … कहां दूर है। मुश्किल से तीन किलोमीटर होगा घर तेरा यहां से। बहन नहीं आई मेरी? मैंने कहा, आ रही कुछ देर में। … मैं जब ठीक था तब साइकिल से पूरा लखनऊ नापता था। खैर, अब तो पता नहीं, कभी ऐसा कर पाऊंगा। यह कहते हुए वे कमरे की छत की तरफ देखने लगे।
जब तक जीवन है, मनुष्य जीने की आस कभी नहीं छोड़ता। अपना दर्द छुपाए फिरता है। ये सोच कर कि उसके अपने उसकी पीड़ा से और दुखी न हों। जिंदगी बेशक लंबी न हो, वह इतनी बड़ी हो कि वो जाते जाते हौसला दे जाए। चंद खुशियां दे जाए।
उनके सिर पर हाथ रख कर मैंने कहा, आप बहुत जल्दी ठीक हो जाएंगे? फिर से आॅफिस जाएंगे मामा। तभी दर्द को दबाने की नाकाम कोशिश करते हुए उनकी आह निकल गई। मैंने पूछा, क्या हुआ मामा? दर्द हो रहा है? राधा…. और उनकी कराह फिर बढ़ती गई…। मेरे कान शून्य हो गए। आंखें पथरा गर्इं। पलकों की तलहटी में आंसू बंजर हो गए। मैंने मन ही मन कहा-हे भगवान अब मैं क्या करूं? हे ईश्वर मेरी जिंदगी इन्हें दे दो। इनके सारे कष्ट मुझे दे दो। इन्हें ठीक कर दो….!!
दर्द शांत होने पर मैंने कहा, मामा खाना खिला दूं। मुंह खोलिए। जैसे कोई चिड़िया मुंह खोल कर दाना मुंह में भर लेती है, वैसे ही बार-बार वो मुंह खोलते रहे और मैं खिलाती रही… उनके हाथों को अपने हाथ में लेकर देखते समय उन्होंने कहा- क्या देख रही हो? बेटा मुझे घर ले चलो। हस्पताल में नहीं रहना। … हां मामा आज शाम आप घर चलेंगे, मैंने जवाब दिया। तुम आओगी न डिस्चार्ज कराने, उन्होंने कातर स्वर में पूछा। जी आऊंगी बिल्कुल। शाम में उनसे से बात करने के बाद, मैंने रुंआसा होकर कहा। घर के लिए जाते हुए उन्हें एक बार फिर देखा और वे कह रहे थे, बेटा मम्मी का ध्यान रखना बहुत मेहनत की है हमारी बहन। हम-तुम और बहन एक ही थाली में खाना खाते थे। याद है तुझे। मैंने धीरे से कहा-हां मामा सब कुछ याद है अभी घर जाओ, तू आएगी न मिलने। उन्होंने फिर पूछा। … हां मामा मैं जरूर आऊंगी…।
और गाड़ी चल दी मैं पीछे छूटती गई खुद में ही …। वो जीने की लालसा लिए बहुत आगे निकल गए हैं। मैं बौनी से आती-जाती सांसों में रोज मरती…। कहते हैं जीवन नश्वर है। जो आया है वो जाएगा ही। यही सच है लेकिन उनका अस्तित्व कभी खत्म नहीं होता। वो आज भी फोन करने पर बोलते हैं- मैं ठीक हूं बेटा। …यही जिजीविषा है। जब तक जीवन है, मनुष्य जीने की आस कभी नहीं छोड़ता। अपना दर्द छुपाए फिरता है। ये सोच कर कि उसके अपने उसकी पीड़ा से और दुखी न हों। जिंदगी बेशक लंबी न हो, वह इतनी बड़ी हो कि वो जाते जाते हौसला दे जाए। चंद खुशियां दे जाए इसलिए जिंदगी को नदी की तरह होना चाहिए। इसे बहते जाना चाहिए। उसे निराशा के बीच भी आनंद को ढूंढना चाहिए। खुश रहना चाहिए।
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