राज गोपाल सिंह वर्मा II
एक विचारक ने कहा था,
‘स्त्री पैदा होती नहीं…
बनाई जाती है’,
उसमें डाले जाते हैं कुछ तत्त्व,
जो करते हैं उसे पुरुषों से भिन्न
जैसे स्नेहिल प्रकृति,
प्रफुल्लता का आवरण,
करुणा की देवी,
शिशुवत सहजता,
संवेदनाओं की अनुभूतियां,
मधुरभाषिणी,
सदैव उष्मित व उर्जित,
नैसर्गिक रूप से समझदार भी
हो वह स्वयं,
और दूसरों का समझे मन,
सहजविश्वासी हो,और हो दयालु,
कर सके नि:स्वार्थ समर्पण,
देकर तिलांजलि स्वयं की भावनाओं की!
और कैसे होते हैं हम पुरूष?
आक्रामकता होता पहला लक्षण,
महत्वाकांक्षी भी होते,
विश्लेषण करते पहले,
फिर पत्ते अपने खोलते,
प्रतिस्पर्धा में खो देते
न जाने कितने दिन और रातें,
आत्मनिर्भर खुद को समझते,
शासक भी स्वयं बन जाते,
करते निर्धारित दायरे,
खुद ही मानक बना डालते!
दैहिक विविधता से प्रबल है स्त्री
सांस्कृतिक अस्मिता भी
है अर्थपूर्ण उसके लिए,
स्त्रीत्व का पुनर्जीवन कहीं बदल न दे
स्त्रियोचित होने की कुछ परिभाषाएं,
बहुत संभव है कि पुरुषोचित गुण
हों जाएं निषेचित उसकी भी कोख में,
फिर देखना तुम कि अस्तित्व का संकट
किस पर आता है,
सिर्फ मुख्यधारा में चाहती है आना वह भी
हक है जो उसका
न घर का अलंकार है और न प्राण प्रतिष्ठित देवी,
गर होती वह ऐसी ही तो क्यूँ नहीं बन सकी
एक पहचान उसकी,
कब तक सहती रहे वह एक पुराना…
अनकहा दर्द
और जिये सिर्फ तुम्हारा मन,
पर स्त्री है वह..
तभी कारण हैं गर्वित होने के
उसके पास!
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