धारावाहिक कहानी/नाटक

अरण्य लीला (धारावाहिक नाटक-भाग 2)

चित्र: गूगल साभार

योगेश त्रिपाठी II

पुजारी : इतने उत्तेजित क्यों हो रहे हो ? …… मेरी बात सच है न ?
मनो : नहीं सच है । उसका हमें एक करोड़ से ज्यादा मिलना चाहिए !
पुजारी : क्यों ? क्यों मिलना चाहिए .. तुम्हें एक करोड़ से … ज्यादा ? …. बोलो राजीव, क्यों मिलना चाहिए तुम्हें एक करोड़ से ज्यादा ?
राजीव : लोकेशन….
पुजारी : लोकेशन अच्छी है या बुरी है… ये तुम निश्चय कैसे करोगे ?
मनो : उसकी कीमत एक करोड़ से भी ज्यादा देने वाले लोग हैं वहां पर !
पुजारी : (मुस्कुराता है।) नहीं हैं ।
मनो : हैं ।
पुजारी : हैं ? क्यों राजीव ? बोलो ? …..हैं ?
मनो : राजीव बोलते क्यों नहीं ? बोलो न ? राजीव !
राजीव : अं !
मनो : क्या हो गया तुम्हें ? तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न ?
राजीव : हां, तबीयत ठीक है… लेकिन कुछ अजीब-सा लग रहा है ।
मनो : बाबा ! आप क्या कर रहे हैं ? आप क्या कर रहे हैं इनके ऊपर ?
पुजारी : मैं क्या कर रहा हूं ? बातें कर रहा हूं राजीव से… बहस कर रहा हूं….
मनो : …..मुझे डर लग रहा है यहां पर …
पुजारी : तो जा भी सकते हो …
मनो : राजीव, चलो, यहां से निकलो, हम कहीं भी चले जाएंगे, पर यहां से निकलो ! चलो उठो !
राजीव अप्रत्याशित रूप से मनो की आंखों में देखने लगता है । मनो उसकी आंखों से अभिमंत्रित होती जा रही है !
राजीव : हमें कहीं नहीं जाना है….
मनो कुछ नहीं कह पाती ।
पुजारी : हां, हमें कहीं नहीं जाना है । हमें यहीं रहना है ।
राजीव : हमें यहीं रहना है ।
पुजारी : रात भर ।
राजीव : हां, रात भर ।
पुजारी : हमें एक कहानी सुननी है ।
राजीव : हां, हमें एक कहानी सुननी है ।
पुजारी : पूरी रात, जग कर…
राजीव : पूरी रात, जग कर….
पुजारी : इन तारों के नीचे.. इन झुरमुटों के बीच
राजीव : वो देखो, खूबसूरत चांद….
पुजारी : और उससे झिलमिलाती रौशनी
राजीव : जैसे रिस रहा हो धीरे-धीरे…
पुजारी : अमृत !
राजीव : देवता ! मेरे देवता ! मनो ! मुंह खोलो ! आसमान से झरता अमृत पी लो, मनो पी लो !
अब तक में मनोरमा भी सम्मोहित-सी …. ऊपर की ओर मुंह खोलती है… मानो अमृत-पान कर रही हो ! इसी तरह पुजारी भी ।
पुजारी : जब सो जाता है सारा संसार, जागती हैं कुछ न दिखने वाली शक्तियां, जिन्हें महसूस कर सकते हैं सिर्फ कुछ लोग ही…
राजीव : कुछ लोग ही….
मनो : आओ बन जाएं हम, उन्हीं में से एक….
राजीव : जो कहीं नहीं गए, जहां पैदा हुए वहीं जमे रहे… अपनी जड़ों के साथ….
पुजारी : वो बेवकूफ थे या थी उनकी चील-दृष्टि… उन्हें छूकर महसूस करें….
मनो, बसावन की माँ के रूप में अभिनय करने लगती है ।
मनो : मेरा बच्चा ! मेरा बच्चा कहां है ! गया था वो अपने पशुओं को लेकर चराने ….आया नहीं अभी तक लौट कर ! बसावन ! बसावन ! तू आ जा न ! सांझ होने को आई ! तू क्यों नहीं आया अब तक ?
वनलताएं गायें बनकर इधर-उधर नृत्यात्मक ढंग से चरती हैं । पुजारी अंदर चला जाता है । राजीव एक ग्रामीण की भांति अभिनय करने लगता है ।
राजीव : अरे वो तो पगला है, उसे समझाओ ! बैठा रहता है कुछ सोचता-सा…. पशुएं चर जाती हैं दूसरों के खेत ! न जाने क्यों बैठा रहता है सोचता-सा ?
मनो : खबरदार जो मेरे बेटे को पगला कहा ! मेरा बेटा तो लाखों में एक है ! चंद्रमा का टुकड़ा है वो ! मेरे बुढ़ापे का सहारा है वो ! उसे पगला मत कहो ! उसे पगला मत कहो ! जैसा भी है मेरा बेटा है …….
वनलताओं के साथ मनो गाती है ।
गीत : बेटा हमारा एकलौता, उसी के बल जीऊं मैं
नहीं विधवा का दूजा सहारा, कि जिस बल जीऊँ मैं ।।
बेटा हमारा बसावन, लाखों में एक है वो
कहीं उसको लगे न नजरिया, टीका लगाऊँ मैं ।।
पुजारी पुत्र बसावन के रूप में आता है ।
पुजारी : मां… मां… सुनो मां !
मनो : बोल मेरे बेटा ! कहां था अभी तक ?
पुजारी : मां, मेरे पिता कहां हैं ? कहां हैं मेरे पिता ? क्या मेरे पिता अब कभी नहीं आएंगे ? बताओ न मां !
मनो सकते में आ जाती है ।
वनलताएं : बताओ न मां ! बताओ न मां !
राजीव : बता क्यों नहीं देती अब बसावन की मां ? बताने से नुकसान क्या है ? बता दो कि उसके पिता अब कभी नहीं आएंगे, क्योंकि मरा हुआ आदमी… कभी वापस नहीं लौटता !
मनो : कैसे बता दूं ? उसका दिल टूट जाएगा…. मां हूं… दुश्मन नहीं….. मैं अपने कलेजे के टुकड़े को नहीं बता सकती कि उसके पिता अब कभी नहीं आएंगे….. बेटा… बेटा… तुम्हारे पिता कहीं गए थोड़ी हैं ? वो यहीं हैं…. यहीं …..
पुजारी : यहीं हैं ? कहां ? यहीं हैं तो दिखते क्यों नहीं ? सबके पिता तो दिखते हैं, मेरे पिता क्यों नहीं दिखते ? बताओ न मां ! बताओ न मां !
मनो : तेरे पिता ने अपना भेस बदल लिया होगा बेटा ।
पुजारी : भेस बदल लिया होगा ? क्यों मां ? अब किस भेस में होंगे वो ? (अचानक आंगन में उपज आए एक नन्हें-से पौधे को देखकर) मां ! ये देख !
मनो उधर देखती है ।
पुजारी : कितना सुंदर पौधा ! मानो अभी-अभी उगा हो !
मनो सम्मोहित-सी पौधे के पास जाती है ।
मनो : आ गए वो ।
पुजारी : कौन मां ?
मनो : तेरे पिता । यही हैं ! वासुदेव के रूप में ।
पुजारी : वासुदेव !
मनो : हां । ये वासुदेव हैं बेटा !
पुजारी : लेकिन मां, सब कहते हैं कि मेरे पिता अब कभी नहीं आएंगे… क्योंकि वो मर गए हैं !
मनो : झूठ कहते हैं वो ! कोई कभी मरता नहीं है ! सिर्फ अपना रूप बदलता है ! मरता सिर्फ शरीर है, आत्मा नहीं !
पुजारी : आत्मा ? आत्मा क्या होती है मां ?
मनो : आत्मा ही तो मूल है बेटा । अजर-अमर । बस, वो हमें दिखाई नहीं देती । रहती यहीं है, आसपास ही । घूमती रहती है । उसी की शांति के लिए ही तो दस खटकरम करने पड़ते हैं ।
पुजारी : क्यों मां ? आत्मा को शांति जरूरी है ?
मनो : हाँ बेटा, जरूरी है ।
पुजारी : घूमती रहे तो क्या बुरा है ?
मनो : बुरा है बेटा । आत्मा अधूरी इच्छाओं को पूरी करने में लगी रहे, अच्छी बात नहीं है ।
पुजारी : तो क्या मां, आत्मा अपनी अधूरी इच्छाओं को पूरा भी कर सकती है ?
मनो : हां रे । आत्मा बरम बनकर अपनी अधूरी इच्छाओं को पूरा कर सकती है । दुश्मनों से बदला लेती है । उन्हें परेशान करती है, चैन से न खुद रहती है, न ही रहने देती है ।
पुजारी : बरम ? बरम क्या है माँ ?
मनो : किसी दूसरे के शरीर को माध्यम बना कर अपने काम सिद्ध करना ।
पुजारी : तो क्या, आत्मा केवल खराब काम करती है, अच्छे काम नहीं करती ?
मनो : अब तू चुप कर । सो जा ।
पुजारी सोने का अभिनय करता है । मनो उसे आंचल में ढंककर स्नेह देती है ।
आत्मा अच्छे काम भी करती है बेटा । अपने मानुसों की रक्षा भी करती है । तभी न बरम देवता की हम पूजा करते हैं कि वो हमेशा हमारी रक्षा करें ।
पुजारी : तो क्या बरम बहुत शक्तिशाली होता है माँ ?
राजीव (सूत्रधार) : सवाल सवाल सवाल…
थक जाती मां, सुनते-सुनते !
मगर न थकता वो नन्हां बालक ।
वो तो बस सोचता
कर रहे होंगे रक्षा उसके पिता ।
कब आएंगे बात करने उससे ?
कब आएंगे वो मिलने उससे ?
सोचते-सोचते समय कब गुजर जाता है…
पता कब चलता है ?
वनलताएँ : कब चलता है पता ! ह ह ह …..
वनलताएं गाती और नृत्य करती हैं । जब जाती हैं तो पीछे पीपल का पौधा बड़ा हो चुका होता है ।
वनलताएं : कौने रंग मुंगवा कौने रंग मोतिया
पै कौने रंग ननदी का बिरना ।
लाल रंग मुंगबा, सफ़ेद रंग मोतिया
पै सगरे रंग ननदी का बिरना ।
टूट जइहीं मुंगबा बिखर जइहीं मोतिया
पै रूठि जइहीं ननदी का बिरना ।
बिन लेवै मुंगवा बटोरि लेबै मोतिया
पै मनाय लेबै ननदी का बिरना ।
वनलताएं अपने स्थान पर जाती हैं । बसावन पीपल के पत्तों को बड़े ही स्नेह से छूता है ।
पुजारी : तुम यहां पैदा हुए हो ?
राजीव : जवाब महसूस किया बसावन ने ….
राजीव पास में बैठ जाता है ।
पुजारी : बोलो न !
राजीव : हां । ताकि तुम मुझे मिल जाओ ।
बसावन : मैं ही क्यों ?
पुजारी : क्योंकि तुम मेरे बेटे हो बसावन ।
वनलताएं : तुम मेरे बेटे हो बसावन ! तुम मेरे बेटे हो बसावन !
पुजारी के चेहरे पर खुशी के अनेक रंग ।
पुजारी : एक बार और कहो !
वनलताएं : तुम मेरे बेटे हो बसावन !
राजीव : सपने में नहीं सोचा था बसावन ने, कि उसके पिता उसे मिलेंगे, एक कोमल पौधे के रूप में ! उसे याद आई मां की बात…
मनो आती है ।
मनो : आत्मा कोई भी रूप, कोई भी शरीर धारण कर सकती है बसावन ।
बोलकर चली जाती है ।
वनलता 1 : हो गया विश्वास बसावन को कि वासुदेव ही हैं उसके पिता
वनलता 2 : जो उसे मिलेंगे एक विराट स्वरूप में……
वनलता 3 : बहुत भारी, बहुत शक्तिशाली ! लेकिन वो मिले तो एक…
वनलता 4 : सुकुमार पौधे के रूप में …. ही ही ही……
पुजारी : तुम मेरे पिता हो तो घर चलो !
राजीव : घर ? मैं अपने घर में ही तो हूं !
पुजारी : नहीं । अंदर चलो ।
राजीव : नहीं बसावन । मैं एक पौधे के रूप में हूँ । पौधे को अंदर रखोगे तो वह मर जाएगा ।
पुजारी : मर जाएगा ?
राजीव : हां, उसे तो खुली जगह चाहिए । ढेर सारी हवा चाहिए, ढेर सारा प्रकाश चाहिए !
पुजारी : तो तुम यहीं रहोगे ?
राजीव : हां । मैं यहीं रहूँगा ।
पुजारी : पानी बरसेगा तब भी ?
राजीव : हां ।
पुजारी : खूब गरमी पड़ेगी तब भी ?
राजीव : हां, तब भी ।
पुजारी : तुम्हें गरमी नहीं लगेगी ?
राजीव : नहीं बसावन । मैं जब और बड़ा हो जाऊंगा तो मेरे कारण तुम्हें भी गर्मी नहीं लगेगी ।
पुजारी : अच्छा !
राजीव : मेरी बाहें जब बड़ी-बड़ी हो जाएंगी तो उसमें खूब सारे पत्ते लगेंगे… जिससे खूब घनी छाया होगी…
पुजारी : तुम अकेले हो ?
राजीव : मतलब ?
पुजारी : तुम्हारे भाई नहीं हैं ? क्योंकि मैं पूरे गाँव में घनी छाया चाहता हूँ । तुम अकेले पूरे गाँव में छाया कर सकते हो ?
राजीव : नहीं बसावन । लेकिन तुम चाहो तो मेरे अनेक भाई भी आ सकते हैं ।
पुजारी : कैसे ? …. समझ गया !
राजीव : ह ह ह … इतना अगर कर लिया तो समझो कि तुम्हारे पूरे गाँव से गर्मी छू मंतर हो जाएगी और पानी भी खूब बरसेगा
पुजारी : मैं ऐसा ही करूँगा । तुम हमेशा मेरे साथ रहोगे न ?
मनो : (अंदर से) क्या कर रहा है बसावन ! चल रोटी खा ले !
पुजारी : ठीक है बाबा, मैं जा रहा हूं…
जाते-जाते लौटता है ।
राजीव : क्या हुआ बेटे ?
पुजारी : तुम नहीं खाओगे ?
राजीव : मैं जो खाता हूँ वह तो खा ही रहा हूं…..
पुजारी : क्या ?
राजीव : हवा….और पानी…
पुजारी : लेकिन तुम्हारे तो मुंह ही नहीं….
राजीव : ह ह ह…. मैं अपने तरीके से खा-पी लेता हूँ … मेरी चिंता न करो !
पुजारी : तो तुम्हें भूख नहीं लगी है ?
राजीव : नहीं । तुम जाओ खाना खाकर सो जाओ ।
पुजारी : और तुम ?
राजीव : मैं यहीं रहूंगा ।
पुजारी : तुम्हें कोई खा ले तो ?
राजीव : हां, ये तो है…… अभी छोटा हूं न, तो … मेरी रक्षा तुम्हें करनी पड़ेगी…
पुजारी : करूंगा बाबा…. मां ! मां ! मैं बाबा को अकेला नहीं छोड़ सकता, इनके लिए बाड़ लगानी पड़ेगी मां !
मनो आती है ।
मनो : बाड़ लगाएगा ?
पुजारी : हां… तुम ठहरो… मैं ले आता हूं…..
पुजारी अंदर जाता है । वनलताएं गाने लगती हैं ।
वनलताएं : ता धि न त क धि न….. ता धि न त क धि न….. हूं हूं……
पुजारी अंदर से ढोला लाता है । पीपल को ढंक देता है ।
पुजारी : जानती हो मां, बाबा ने कहा है कि जब उनके कई भाई हो जाएंगे तो मेरे गांव में खूब छाया हो जाएगी और पानी भी खूब बरसेगा ….
मनो : भाई ?
पुजारी : तुम तो समझती ही नहीं हो मां ! भाई माने इनके जैसे कई पेड़ ।
मनो : लेकिन बेटा, सब लोग लगाएंगे तब न !
पुजारी : मैं लगाऊंगा,… मैं.,.. हां मां….. इनके सैकड़ों भाई लगाऊंगा… मैं अकेले ही…बाबा ने कहा है….
मनो : उनकी रक्षा कौन करेगा ?
पुजारी : मैं, तुम्हारा बसावन !
वनलताओं के साथ सभी गाते-नाचते हैं । समय बीतने का सूचक होगा यह गीत ।
गीत : आसाढ़ मास में बोले कोइलिया ।
पंडित सुदिन बिचारी,
हां जी पंडित सुदिन बिचारी ।
सामन मास झिमिक जल बरसै,
भादौं झुकी अंधियारी ।
हाँ जी भादों झुकी अंधियारी ।
कुंआर मास में फूली तुरइया,
चारिउ दिसा ललामी ।
हाँ जी चारिउ दिसा ललामी
मनो : बसावन ! वासुदेव को लगाए हो, तो उनकी अच्छे से देखभाल करना !
पुजारी : कर रहा हूं मां । मैं बाबा के हर भाई के पास जाता हूं । सबके चारों ओर बाड़ लगा दी है !
गीत : कातिक मास मां दिया हो देवारी,
सब सखी गमने जाई ।
हाँ जी सब सखी गमने जाई ।
पूस-माघ के ठारी परति है,
पहिरे झूला सारी ।
हाँ जी पहिरे झूला सारी ।
मनो : बसावन, पूस लगा है, बहुत ठंड पड़ती है । समझ गए न ?
पुजारी : समझ गया मां, बाबा अब बहुत बड़े हो गए हैं… और खूब मजबूत भी ….
गीत : फागुन मास खेलें सखि होरी,
रसिया मोरे पिचकारी ।
हाँ जी रसिया मोरे पिचकारी
चइत मास बन फूले हैं टेसुआ,
सखि सब गौरा पूजन जाई ।
हाँ जी गौरा पूजन जाई ।
बैसाख मास मा गरम महीना,
सब सखि बेनिया डोलाई ।
हाँ जी सब सखी बेनिया डोलाई ।
जेठ महीना बरा-बरसाइत,
सब सखि बरा का पूजै जाई ।
हाँ जी बारा का पूजन जाई ।
सभी : बोलो वासुदेव भगवान की जय !
वृक्ष-पूजा का दृश्य उपस्थित होता है ।
गीत : पिपरे के पांतिन बिराजे वासुदेव,
चला पूजि लेई सजनी
पीपर के बिरवा बहुत सुभ लागै
गमइन मां ओहिंही चउपार खूब लागै
सब मिलि पीपर नहबाबा हो,
चला पूजि लेइ सजनी….
पांचि सखी मिलि सूत चढ़ाबा
पिपरे के पांतिन मां सेंदुर लगाबा
झुर-झुर बहै बेयरिया हो,
चला पूजि लेई सजनी….
सब सखियन मिलि मंगल गाबा
ढोल मजीरा घंटा बजाबा
झूमै अउ लहरै पिपरबा हो,
चला पूजि लेई सजनी….
मनो : वासुदेव भगवान का रूप होते हैं बेटा । अक्षय-वट का नाम सुना है ?
बसावन : नहीं मां ।
मनो : इनके भाई हैं । वट माने बरगद ।
बसावन : हम लगाए हैं ।
मनो : जब सगरी पृथ्वी परलय में डूब गई थी न, तब भी प्रयागराज का वो अक्षयवट नहीं डूबा, और उसके एक पत्ते पर विश्नू भगवान बालरूप धारण करके सोते रहे । खेलते खेलते बड़े हुए और फिर से सृस्टि रच डाले । इसलिए बसावन, तुम इन्हें अपना बाबा माने हो, तो रोज बिना नागा किए, उन्हें जल चढ़ाना, उनकी पूजा करना ।
बसावन : करूंगा मां । सारे नियम करूंगा । मेरे बाबा जो हैं ।
राजीव : रोज सबेरे नहाकर कुइयां से पानी निकालता और बड़ी ही सफाई और श्रद्धा के साथ पूरे गांव में लगाए अपने पौधों को सींचता बसावन । पौधों के चारों ओर कंटीली बाड़ लगा दी कि भेड़-बकरियां न चर जांए । सुबह आंख खुलते ही पौधन के पास पहुंचता । नई निकलती कोंपलों को हाथों से सहलाता । देर तक निहारा करता । पौधे से बसावन के प्रेम को देखकर मां खुश होती । इस बात पे खुश होती कि उसका इकलौता बेटा धरम-करम के मार्ग पर चल रहा है । बाकी तो उसे कुछ पता ही नहीं था । एक रात …. बड़ी ही घनेरी रात….. बसावन की आंखों में नींद ही नहीं !
वनलताएं : हे…………. ता धि न त क धि न….. ता धि न त क धि न….. हूं हूं……
मनो लेटी हुई है । बसावन आकर पास में बैठ जाता है ।
मनो : बेटा, आ सो जा । रात बहुत हो चुकी ।
पुजारी : बाबा सो गए होंगे मां ?
मनो : अरे ! बाबा को क्यों याद कर रहा है रे ?
पुजारी : क्योंकि मैंने उनको सोते हुए कभी नहीं देखा । बताओ न मां ! क्या बाबा भी सोया करते थे ?
मनो : हां बेटा । वो भी सोते थे । हर मानुस सोता है । सोए न तो अगले दिन काम कैसे करे ? अब तू भी सो जा ।
पुजारी : तो वो जिस रूप में हों, सोते होंगे ?
मनो : हां । चाहे जिस रूप में हों ।
पुजारी : वासुदेव के रूप में हों, तब भी ?
मनो : तूने ये काहे पूछा ?
बसावन : बताओ न मां ! क्या वासुदेव भी सोते हैं ?
मनो : नहीं बेटा । वासुदेव तो साच्छात भगवान होते हैं । वो कभी नहीं सोते ।
बसावन : क्यों ?
मनो : काहे कि वही तो सबकी रखवारी करते हैं बेटा !
बसावन : रखवारी ?
मनो : हां, उनकी जड़ों में विष्णु, तना में केशव, शाखों में नारायण और पत्तों में हरि निवास करते हैं ! तो जितने देवता हैं सब उनमें हैं, और देवता ही न हमारी रक्षा करते हैं बेटा ?
बसावन : मगर मां, कुछ लोग बोले कि वासुदेव में भूत रहते हैं ! घर में नहीं लगाना चाहिए ।
मनो : पागल हैं वो । वासुदेव में भूत नहीं, पित्तर रहते हैं । और पित्तर माने तीरथ बेटा । जो अपने पितरों को साध ले, तीरथ करने कहीं बाहर जाने की जरूरतै नहीं ।
कुछ देर तक बसावन चुप रहता है ।
पुजारी : मैं जाऊं मां ?
मनो : कहां रे ?
पुजारी : उनके पास सोने ?
मनो : किनके पास ?
पुजारी : अपने बाबा के पास ।
मनो : बाबा के पास ? तेरी तबीयत तो ठीक है न ? तेरे बाबा अब इस दुनिया में नहीं हैं बेटा । वो जहां हैं, सुखी हैं । तू उनकी चिंता न कर ।
पुजारी : नहीं मां । वो सुखी तो हैं । लेकिन उनकी चिंता हमें तो करनी पड़ेगी । नहीं तो कोई काट ले जाएगा ।
मनो : किसे काट ले जाएगा ?
पुजारी : हमारे बाबा को । जो वासुदेव के रूप में फिर से पैदा हुए हैं ।
मां हैरान होती है ।
मनो : ये तू क्या कह रहा है बेटा ? वो वासुदेव तेरे पिता ?
पुजारी : माँ तू कितनी भुलक्कड़ है ! तूने ही न कहा था कि वो मेरे पिता हैं । मुझे बता कर खुद ही भूल गई !
मनो : अरे वो तो मैंने ऐसे ही … बसावन, ये पागलपन है बेटा । कोई मानुस पौधे के रूप में नहीं पैदा हो सकता ।
पुजारी : पैदा हुए हैं मां । मेरे बाबा ही हैं वो वासुदेव । वो मुझसे बात करते हैं । उन्होंने ही बताया मुझे कि वो मेरे बाबा हैं ।
मनो : का बताया उन्होंने ?
पुजारी : यही कि वो मेरे बाबा हैं ।
मनो : ऐसा कैसे हो सकता है ? मुझे तो कभी नहीं बताया । मुझसे तो कभी बात नहीं की ।
पुजारी : लेकिन मुझसे बात की । बहुत सारी बात की । मैं जाऊं उनके पास ?
मनो : तूने बाड़ लगा दी है न ! कोई कैसे उनको नुकसान पहुंचाएगा ! अच्छा जा ! एक बार देख आ । कोई मवेशी तो नहीं है आस-पास ? फिर आकर सो जाना । ….. जल्दी से आ जाना !
पुजारी पीपल के पौधे के पास आता है ।
पुजारी : तुम तो सचमुच जाग रहे हो ! आज मैंने मां को भी बता दिया । अब वो भी जान गई कि तुम अपने घर दोबारा आए हो । बोलो न कुछ ? बिदुरा रहे हो, पर बोल कुछ नहीं रहे हो !
मनो : (ऊंचे स्वर में) बसावन ! अब आ जा बेटा !
पुजारी : ठीक है । मैं जाता हूं, मां बुला रही है न !


वह आत्मीय दृष्टि से देखता हुआ लौट आता है । मां के बगल में लेट जाता है

क्रमशः ….

नोट : इस आलेख का आंशिक या पूर्ण उपयोग, मंचन या किसी भी रूप में करने से
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About the author

योगेश त्रिपाठी

जन्म (18 जून सन् 1959) और शिक्षा, बघेलखंड के केंद्र रीवा (म.प्र.) में । साहित्य कला परिषद दिल्ली सरकार द्वारा तीन बार मोहन राकेश पुरस्कार प्राप्त - मुझे अमृता चाहिए (2002), केशवलीला रामरंगीला (2011) एवं चौथी सिगरेट (2018) । आकाशवाणी महानिदेशालय नईदिल्ली द्वारा दो रेडियो नाटक पुरस्कृत - शत्रुगंध (2002) और लकड़ी का पुल (2016) । रीवानरेश महाराज विश्वनाथसिंह रचित हिंदी के प्रथम नाटक आनंद रघुनंदन का संपादन व बघेली रूपांतरण । बाणभट्ट कृत कादंबरी का संपादन व हिंदी नाट्यांतरण । अब तक 60 से अधिक रेडियो नाटक और 44 छोटे-बड़े मंचीय नाटकों का लेखन/ नाट्य रूपांतरण । देश के विभिन्न नगरों-महानगरों में लगभग 40 निर्देशकों के द्वारा दो सौ मंचन । रंगकर्म - होरी, बिन बाती के दीप, राग दरबारी, होइहैं वहि जो राम रचि राखा, प्रलय की दस्तक, कालचक्र, गबरघिचोर, देह तजों कि तजों कुलकानि, ताजमहल का टेंडर, अभिज्ञान शाकुंतल (कालिदास नाट्य-समारोह 2009), कोर्टमार्शल, छाहुर, रानी लक्ष्मीबाई, फूलमती आदि नाटकों का निर्देशन । होइहैं वहि जो राम रचि राखा, गबरघिचोर और छाहुर (मध्यप्रदेश नाट्य समारोह 2005) नाटकों में बघेली नाट्य-युक्तियों का सृजनात्मक प्रयोग । बघेलखंड के पारंपरिक नाट्य-रूपों के संकलन, अभिलेखन और आधुनिक रंगमंच पर इनके सृजनधर्मी प्रयोग से नई नाट्यभाषा और नाट्य-युक्तियों की खोज में संलग्न । पुस्तकें - 1. कागज पर लिखी मौत 2. हस्ताक्षर 3. दो रंग नाटक - मुझे अमृता चाहिए और युद्ध 4. ता में एक इतिहास है 5. रंग बघेली (बघेली नाट्यसंकलन) । 6. दो नाटक - शत्रुगंध और ऑक्सीजन 7. आदि शंकराचार्य 8. 1857 : एक अविजित विजय

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