नरेन्द्र कोहली II
नाश्ता करके तैयार होते-होते तक उसका विचार बदल गया था। वह पहले यूनिवर्सिटी जाएगा—उसने तय कर लिया था, फिर दफ्तर जाएगा। दफ्तर के लिए देर हो जाएगी, पर वह यूनिवर्सिटी अवश्य जाएगा। वह अनुराधा से शाम को मिलने का समय और स्थान नियत कर लेगा। वह जानता था, अनुराधा रोज सवेरे घंटे-डेढ़ घंटे के लिए लाइब्रेरी जरूर जाती थी। वह दस बजे वहाँ पहुँचती थी और अमिताभ को साढ़े नौ बजे दफ्तर में अपनी सीट पर होना चाहिए था। काफी देर हो जाएगी, पर वह उससे मिलने जाएगा।
ठीक दस बजे अनुराधा उसे यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी में मिल गई।
“तुम आ गए!” अनुराधा बोली, “मैं सोच रही थी, तुम्हें कहाँ कंटैक्ट करूँ। अभी न मिलते तो शाम को तुम्हारे कमरे पर मैं जरूर आती। तुम दफ्तर नहीं गए?”
“दफ्तर!” अमिताभ हँसा, “जाऊँगा अभी।
“दस तो बज गए?”
“हाँ!”
“बंधन कितना कठिन लग रहा है न?” अनुराधा उदास थी। “हाँ, अनु!” अमिताभ जल्दी से बोला, “बताओ, शाम को कहाँ मिलोगी?”
‘शाम को?” ‘अनुराधा ने एक मिनट के लिए सोचा, “दफ्तर से सीधे बैंगर्स आ जाना। बाकी वहीं सोच लेंगे।”
‘ओ.के., ” अमिताभ बोला, “मैं चलूँ फिर देर हो रही है।”
वह बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए लाइब्रेरी से बाहर निकल आया। उसे काफी हल्का लग रहा था। स्नायुओं का बोझ काम हो चुका था। अब वह दफ्तर का काम कर सकता था।
अमिताभ दफ्तर से छूटते ही वैंगर्स पहुँचा। बस की प्रतीक्षा उसने नहीं की। पार्लियामेंट स्ट्रीट से वैंगर्स दूर ही कितना था। दस मिनट में पैदल पहुँचा जा सकता था और बस शायद मिलती ही आधा घंटे में
अनुराधा कोने की मेज पर अकेली बैठी थी। उसने अभी तक ऑर्डर नहीं दिया था या अभी-अभी ही आई थी।
अमिताभ हाथ की दो-एक पत्रिकाएँ मेज पर रखकर, कुरसी पर पसरकर आराम से बैठ गया। अनुराधा ने आँखें उठाकर उसे देखा और हल्के से मुसकराई।
“यूनिवर्सिटी से सीधी आई हो?”
“नहीं!” अनुराधा बोली, “यूनिवर्सिटी मैं यह साड़ी पहनकर गई थी क्या?”
उसने कल खरीदी हुई लाल बॉर्डर वाली सफेद साड़ी पहन रखी थी।
“घर से होकर आई हो?”
“हाँ।” अनुराधा बोली, “घर से होकर आई हूँ। साड़ी बदलकर आई हूँ और लड़कर आई हूँ।”
“लड़कर?”
“हाँ।” अनुराधा ने बताया, “मैंने यह साड़ी पहनी तो सबकी आँखें खुल गई। पूछा, यह साड़ी कहाँ से ली? मैंने बता दिया। मैं कोई डरती हूँ किसी से । मम्मी ने बहुत डाँटा। बोलीं, हम इतने गए-बीते हैं कि तुम अमिताभ से साड़ियाँ ले-लेकर पहनो। शादी के बाद जो चाहे लेती रहना, अभी कुछ मत लो। उन्होंने कहा है, यह साड़ी तुम्हें वापस कर दूँ। पर मैं कैसे कर सकती हूँ। मैंने कह दिया कि वापस नहीं करूँगी और बता दिया कि इसे पहनकर तुम्हीं से मिलने जा रही
” तो घर से बाहर की पहली भेंट पर ही झगड़ा-वगड़ा आरंभ हो गया?” अमिताभ मुसकराया।
“झगड़े-वगड़े तो होंगे ही। आखिर उन्होंने ऐसी स्थिति अच्छा, छोड़ो !” उसने बात बदली, “क्या खिला रहे हो?”
दोनों ने मटन-कटलेट और दो-दो स्लाइस खाए। कॉफी पी और बिल चुकाकर बाहर आए।
“पिक्चर देखें, अनु?” अमिताभ ने पूछा ।
“देर हो जाएगी, अमि! मैं इतनी देर के लिए घर पर कहकर नहीं आई।’ “पर वह कोई जरूरी तो नहीं है।”
“अच्छा, चलो।”
हॉल में घंटा भर अनुराधा ठीक रही, फिर अमिताभ को लगा कि उसका मन नहीं लग रहा, वह अनमनी सी होती जा रही है। उसने कई बार धीरे से पूछा, पर वह टाल गई।
बाहर निकल, अमिताभ ने पूछा, “कैसी लगी?”
“भई, सच यह है, ” अनुराधा का स्वर उत्साहशून्य था, “मैं एन्जॉय नहीं कर सकी। घर पर कहकर नहीं आई थी। बिना बताए देर तक बाहर रहने की मुझे आदत नहीं है, इसलिए मन नहीं लग रहा था।” “चलो, ” अमिताभ को उसकी स्थिति का एहसास हुआ, “मैं तुम्हें टैक्सी
पर घर छोड़ आऊँ।”
• अनुराधा ने मना नहीं किया। वे स्टैंड तक आए।
‘एक बात पूछू, अमि?” टैक्सी चलने पर अनुराधा बोली। “हूँ।” अनुराधा का अनमना हो जाना अमिताभ को अच्छा नहीं लग रहा
था।
“आज तुम्हारे कितने पैसे खर्च हुए?”
“पाँच वैंगर्स में, साढ़े सात पिक्चर में और “।” “पाँच के लगभग टैक्सी में!” अनुराधा बोली, “तुम्हें नहीं लगता, अमि,
कि ऐसे मिलना बड़ा महँगा पड़ता है?” “तो क्या हो गया?” अमिताभ निश्चिंतता से बोला, “कभी-कभार खर्च हो जाए तो क्या है?”
“कभी-कभार हो जाए तो कोई बात नहीं, पर हमें तो रोज इसी प्रकार मिलना पड़ेगा और रोज इतना खर्च “
“ऐसा करो।” अमिताभ बोला, “कल छुट्टी है। लंच के बाद तुम ओडियन के स्टॉप पर मिल जाओ। कुतुब चले चलेंगे। वहाँ बहुत जगह है घूमने को। समय
मजे में बीत जाएगा और खर्च भी नहीं होगा।”
“ठीक है।” अनुराधा बोली और फिर चुप हो गई।
अमिताभ देख रहा था, अनुराधा के मुख की तनी रेखाएँ ढीली नहीं हो रही
थीं। वे उसी प्रकार तनी बैठी थीं। “क्या बात है, अनु, योजना पसंद नहीं आई?” उसने पूछा।
“नहीं, वह बात नहीं है।” अनुराधा रोष भरे स्वर में बोली, “मैं इस प्रकार मिलना नहीं चाहती। हम अच्छे-भले घर में बैठे रहते थे। पर अब वह रुकी, “मुझे अपने घरवालों पर गुस्सा आ रहा है, जिन्होंने हमें घर से निकालकर इस प्रकार मिलने पर मजबूर किया है।”
अमिताभ कुछ नहीं बोला। उसे भी लग रहा था, इस प्रकार बाहर-बाहर मिलना दोनों के लिए ही स्वाभाविक नहीं था। घर पर मिलकर एक प्रकार का उल्लास उसके मन में भर जाता था; उसका अब कहीं पता नहीं है। अनुराधा भी कितनी बदल गई है। पहले वह मिलने उसके घर जाता था। बातों ही बातों में देर हो जाती थी। वह उठना चाहता तो अनुराधा उसे कितने आग्रह से ठहरने के लिए कहती थी। अब अनुराधा जल्दी-से-जल्दी भागकर घर पहुँचना चाहती थी। एक मिनट भी रुकना नहीं चाहती। जब तक उसके साथ होती है, उसके साथ होने का उल्लास भी उसके मन में नहीं होता, क्योंकि यह साथ होना भी एक मजबूरी है।
उसे लगा, न केवल अनुराधा के मन में अपने घरवालों के प्रति रोष है, वरन् वह भी धीरे-धीरे अपने मन में वही कुछ संचित कर रहा है। इस प्रकार यदि वे अपने मन में रोष संचित करते रहे तो वे व्यर्थ ही उनसे एकदम अलग-थलग हो जाएँगे। विवाह के बाद भी ये संबंध सहज नहीं हो पाएँगे और उसे यही लगेगा कि उसने अनुराधा के साथ विवाह नहीं किया, उसे भगाकर लाया है।
यह वह नहीं चाहता था। ऐसा क्यों हो, जब अनुराधा के डैडी ने स्वयं उसे चुना था जो कुछ हुआ था और हो रहा था, उसमें उनकी सहमति थी। फिर इस खिंचाव का लाभ?
अमिताभ ने टैक्सी रुकवाकर अनुराधा को उसके घर के पास सड़क पर ही उतार दिया और कल के कार्यक्रम की याद दिला दी। कोई और समय होता तो वह टैक्सी वहीं छोड़ देता और उसके साथ घर जाता। सबसे मिलता और शायद खाना भी वहीं खाता।
आज वह टैक्सी से नहीं उतरा। भीतर से ही ‘वेव’ करके विदाई ले ली। अनुराधा ने भी रुकने रुकवाने का कोई चाव नहीं दिखाया। एक बार हाथ हिलाया और मुड़कर चली गई।
दूसरे दिन अनुराधा अमिताभ से मिली तो बहुत क्षुब्ध थी।
“फिर झगड़ा हुआ?” अमिताभ ने मजाक किया।
“हाँ!” वह बोली, “पर अभी मत पूछना। कुतुब पहुँचकर बताऊँगी।’ बस में इतनी अधिक भीड़ थी कि न वे इकट्ठे बैठ सके, न कोई बात ही हो सकी। घंटा-डेढ़ घंटा दोनों अलग-अलग सीटों पर बैठे रहे। एक ही बस में होने के कारण सामीप्य का अहसास भर था।
कुतुब पर बस रुकी तो वे उतरे। छुट्टी का दिन था। ढेरों लोग दिन बिताने के विचार से आए हुए थे। कहीं भी एकांत नहीं था। वे कहीं ठहरे नहीं, चलते गए।
“क्या बात हुई, अनु?” अमिताभ ने फिर पूछा। “वह बात तो कोई खास नहीं है।” अनुराधा “विनीता को कहीं
ने कहा, जाना था। उसे मेरी लाल बॉर्डर वाली साड़ी भा गई है। उसने मुझसे पहनने के लिए वह साड़ी माँगी। मैंने इनकार कर दिया। मैंने किसी चीज के लिए उसे कभी मना नहीं किया। पर यह तुम्हारा उपहार है, प्रेम का प्रतीक है। मैं कैसे सह सकती हूँ कि इसे कोई और पहने, चाहे वह मेरी अपनी ही बहन हो!”
“फिर?”
“फिर क्या!” अनुराधा ने कहा, “विनीता आगे से तीखी पड़ी तो मैंने डाँट दिया और वह रोने लगी। उसे रोते देख मम्मी नाराज हो गईं और मुझे साड़ी दे देने को कहा। मैंने फिर इनकार कर दिया। जानते हो उन्होंने क्या कहा! ‘बड़ी कीमती साड़ी है, जैसे यही पहनकर फेरे लेगी। पच्चीस रुपए की साड़ी नहीं है।’ मैंने भी कह दिया, ‘अब तो चाहे कुछ भी हो, मैं इसी साड़ी में फेरे लूँगी।’ ठीक है न! तुम्हें कोई एतराज तो नहीं होगा?”
अमिताभ अचकचा गया। उसने नहीं सोचा था, अनुराधा इतनी बड़ी बात कर जाएगी और उससे भी वचन चाहेगी। “पर अनु! यह साड़ी तो सफेद है।” वह बोला, “फेरे तो लाल साड़ी में लिये जाते हैं। “
“वह सब मैं नहीं जानती।” अनुराधा बोली, “मैं तो इसी साड़ी में फेरे लूँगी। लाल रंग शुभ माना गया है, इसलिए सब लोग पहनते हैं। इसमें भी लाल बॉर्डर है। और जब मैं इसे ही शुभ मानती हूँ तो किसी को क्या आपत्ति! तुम्हें कोई आपत्ति हो तो अभी बता दो?”
अमिताभ आपत्ति करने का साहस न कर सका। अनुराधा उसी से उलझ पड़ी तो? अनुराधा उस साड़ी को इतना बड़ा मान देना चाहती है तो यह अमिताभ का भी सम्मान था।
“तो रानीजी, फेरों के लिए बहुत व्याकुल हैं?” उसने बात टालने की चेष्टा की। अनुराधा में अपेक्षित प्रतिक्रिया नहीं हुई। वह उसी प्रकार गंभीर रही, बल्कि में कुछ और दृढ होकर बोली, “हाँ, अमि! बहुत थक गई हूँ अब। मेरे अपने! तुमसे परायों की तरह कुछ देर तक मिलकर संतोष नहीं होता। सोचती हूँ- अब दोनों साथ-साथ रहें, चौबीसों घंटे। वह शादी के बाद ही हो सकता है।”
अमिताभ भी गंभीर हो गया। बोला, “खासकर, कल से मैं भी सोचने लगा हूँ अनु, कि अब शादी टालने का कोई अर्थ नहीं है। घर से दूर, सबसे छिपकर थोड़ी देर के लिए मिलना बहुत कष्टप्रद है।
कुतुब में वे अधिक नहीं ठहरे। वहाँ लोगों के बीच बैठने में उन्हें संकोच होता था। यहाँ बैठने वाले सब ही बाल-बच्चों वाले थे। उनके बीच ऐसे जोड़े का बैठना, जो परस्पर विवाहित नहीं, लगता था- दोनों में से किसी को भी ठीक नहीं जँचा। एकांत खोजने के लिए कुतुब से कुछ दूर जंगल में जाना पड़ता। वह जोखिम का काम था।
क्रमशः …
साभार: ‘नरेन्द्र कोहली की लोकप्रिय कहानियां’ , प्रभात प्रकाशन
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