आलेख कथा आयाम

बेलगाम डिजिटल जंग से बिगड़ता माहौल

फोटो: साभार गूगल

शंभूनाथ शुक्ल II

आजाद भारत के चुनावों में पहली बार ऐसा प्रचार युद्ध हो रहा है, जब पक्ष हो या विपक्ष कोई भी अपने प्रतिद्वंद्वी पर हमला करते वक्त युद्ध के दौरान बरती जाने वाली नैतिकता का भी ख्याल नहीं रख रहा। पहले भी चुनाव के दौरान एक-दूसरे की पोल खोली जाती थी, वैचारिक हमले भी होते थे, लेकिन समाज के अंदर की समरसता को नष्ट करने की चेष्टा कभी नहीं की गई। शायद इसलिए भी कि तब प्रतिद्वंद्वी सामने होता था और लोकलाज व लिहाज की चेतना भी हर एक में रहती थी, लेकिन जब राजनीतिक विरोधी सामने न हो और उसके विरुद्ध प्रचार आवश्यक हो, तब कैसा लिहाज और संकोच! यही हो रहा है इस बार चुनाव प्रचार में हर पार्टी ने प्रचार के लिए डिजिटल माध्यम का सहारा लिया। नतीजा यह कि चुनाव प्रचार के दौरान जैसी सामुदायिक शत्रुता इस डिजिटल प्रचार से हुई, वैसी पहले कभी नहीं हुई। समाज के बीच भी परस्पर वैमनस्य फैला। क्या इसके बाद परस्पर विरोधी प्रचार में जुटे लोग आमने-सामने बैठ पाएंगे?

हमारे पौराणिक आख्यानों जैसे महाभारत में राजनीति की व्यावहारिक व्याख्या है। जब कुरुक्षेत्र का समर सज गया और कौरव व पांडवों की सेनाएं युद्ध को आतुर थीं, तब अर्जुन अपने सामने युद्ध को तत्पर अपने ही बंधु बांधवों को देखकर विह्वल हो उठते हैं। कृष्ण तब अर्जुन को समझाते हैं कि युद्ध क्यों आवश्यक है। कृष्ण उनके अंदर ‘किलिंग इंस्टिंक्ट’ पैदा करते हैं। लेकिन इस ‘किलिंग इंस्टिंक्ट’ का उद्देश्य शत्रुता का भाव उत्पन्न करना था, नैतिकता व लोकलाज की अनदेखी करना नहीं। पर आज क्या हो रहा है? डिजिटल मीडिया के जरिये लोगों के बीच परस्पर सौहार्द को नष्ट करने की कोशिश हो रही है। आज तो ‘किलिंग इंस्टेिक्ट’ के लिए ऐसा जहर घोला जा रहा है, जो योद्धाओं के बीच भले दोस्ताना हो, किंतु उनके समर्थकों के बीच ऐसी खाई पैदा कर गया है, जिसे भरना मुश्किल है। डिजिटल प्रचार, डिजिटल रैलियां और सोशल मीडिया के फर्जी योद्धा जिस तरह से लोगों को भड़का रहे हैं, जैसे उसका असर चुनाव के बाद दिखेगा। डिजिटल प्रचार के जरिये समुदायों को एक-दूसरे का घनघोर विरोधी बनाया जा रहा है। ताजा प्रकरण है हिजाब का। ऐसा लग रहा है, मानो मुसलमानों के लिए हिजाब नहीं, तो कोई काम नहीं, उधर कट्टरपंथी हिंदू तत्व मानो अब मुस्लिम महिलाओं को हिजाब और नकाब से आजादी दिलाकर ही मानेंगे।

‘लोगो को सोशल मीडिया पर भड़काकर अपना हित साध लेना एक ऐसा हथियार है, जो दोधारी है।’

फोटो: साभार गूगल

एक बात और चूंकि डिजिटल मीडिया में अधिकतर वे लोग हैं, जो बेरोजगार हैं, जो हताशा के इस माहौल में अपना गुस्सा निकालने को आतुर है। जब से फेसबुक और ट्विटर की शुरुआत हुई है, तब से चुनाव के समय इनका इस्तेमाल भी हुआ है, लेकिन इस बार उसका चरम रूप सामने आया है। 2019 का एक अत्यंत दिलचस्प वाकया मुझे याद है। एक पूर्व केंद्रीय मंत्री की पोती की शादी थी। उसमें कई राजनेता जुटे थे। एक वरिष्ठ पत्रकार ने शर्त लगाई कि यदि भाजपा जीत गई, तो यह मूंछ मुड़वा देंगे। संयोग यह कि तीन महीने बाद लोकसभा में भाजपा बड़ी जीत के साथ आई। मैंने उनको शर्त की याद दिलाई, तो बोले, चुनाव के पहले की शर्त चुनावी वायदे जैसी होती है। पर जो युवा ऐसी भावनाओं में बह रहे हैं, चुनाव बाद अपनी शत्रुता खत्म कर देंगे ? शायद नहीं, और यह शत्रुता आगे भी उनके दिमाग में पोषित होती रहेगी। ऐसी नफरत सामाजिक रिश्तों को बिगाड़ती है।

सरकार को सोचना होगा कि भविष्य में प्रचार को डिजिटल बनाना भी पड़े, तो कोई नियामक संस्था हो, जो सोशल मीडिया पर लगाम लगाए। राजनेता इस पर अंकुश लगाने का भी कोई प्रयत्न नहीं करते, क्योंकि यह उनके लिए हथियार भी होता है। पर लोगों को सोशल मीडिया पर भड़काकर अपना हित साध लेना एक ऐसा हथियार है, जो दोधारी है। भले वह आज आपके लिए उपयोगी हो, लेकिन आगे चलकर कष्टकारी होगी। इसलिए सरकार को सोचना होगा कि कैसे भविष्य में प्रचार को यूँ डिजिटल न बनने दे और अगर किसी वजह से बनाना भी पड़े, तो कोई ऐसी नियामक संस्था हो, जो सोशल मीडिया पर लगाम लगाए। प्रिंट सदैव एक दस्तावेज होता है। उसमें प्रकाशित सामग्री को डिलीट नहीं कर सकते। वह वर्षों तक बना रहता है, पर टीवी मीडिया कोई भी सूचना एयर करने के बाद भूल जाता है और डिजिटल मीडिया तो ब्लिंक करता है, उसमें स्थायित्व कहाँ! कोई नियामक संस्था ही नफरती सामग्री को लगाम लगा सकेगी, ताकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर समाज को विखंडित न किया जा सके।
(लेखक के अपने विचार है)

साभार: ‘हिन्दुस्तान’ समाचार पत्र
नई दिल्ली,15 फ़रवरी

About the author

शंभूनाथ शुक्ल

वरिष्ठ पत्रकार

Leave a Comment

error: Content is protected !!