मनस्वी अपर्णा II
भारतीय परिप्रेक्ष्य में चुनाव बहुत महत्व का शब्द है क्योंकि हमारा नागरिक जीवन इस चुनाव के आने से पहले और आने के बाद दो परस्पर विपरीत खंडों में बंटा हुआ होता है। एक वक्त में हम राजा होते हैं दूसरे में कतई भिखारी। और मजे की बात यह है कि पिछले लगभग 75 साल से हम किसी कठपुतली की तरह यह तमाशा देखते और करते आए हैं, जिसका कोई बड़ा रंजो गम हमको है नहीं। खैर, मैं फिलहाल इस चुनाव से मुखातिब नहीं हूं। मैं किसी और चुनाव की बात कर रही हूं। दरअसल, हम जब तक किसी आध्यात्मिक आयाम को नहीं छू लेते, हम प्रतिक्षण चुनाव की प्रक्रिया में ही होते हैं। हम सतत दो या अधिक चीजों के बीच कुछ चुन रहे होते हैं। हमको इस बात का अहसास हो या नहीं, लेकिन चुनाव की प्रक्रिया में हम सतत लगे हुए हैं।
दिन से लेकर रात तक का हमारा हर निर्णय, हर कदम चुनाव से ही निर्धारित हुआ होता है। अगर हम जल्दी उठते हैं तो नींद और जागने के बीच हमने जागरण को चुना है, यदि सुबह व्यायाम या सैर पर निकले हैं तो स्वास्थ्य चुना है, मोबाइल देखने की जगह अखबार पढ़ा है, भोजन में क्या और कब लेना है, गाड़ी धीमी या तेज चलानी है, काम या तफरीह में से कुछ चुना है। कुछ सुन कर अनसुना किया है तो कुछ जान कर सुनना चाहा है और वो सब कुछ जिसे हम जीवन कहते हैं उसमें ऐसा कोई क्षण नहीं होता जब हम दो अधिक विकल्पों में से कुछ चुन नहीं रहे होते हैं। ये दीगर बात है कि हम ये सब यूं करने लगे हैं कि अब इस प्रक्रिया का हमको कोई होश नहीं रहता, बस हम आदतन करने लगे हैं।
गौर से देखेंगे तो हम ये बहुत आसानी से समझ सकते हैं कि जो कुछ भी हम आज हैं जिस भी आकार प्रकार, स्थिति-मनोस्थिति में हम हैं वो सब आत्यंतिक रूप से हमारे ही चुनाव का नतीजा है भले ही देखने में लगता हो कि कोई परिस्थिति या कोई बाहरी तत्व इसको निर्धारित कर रहे थे…। लेकिन जब भी गहरे से गहरे तल पर समझने की कोशिश करेंगे, तो समझ आएगा कि हमने जो भी चुना या जरूरत को निर्णायक मान कर कोई भी बड़ा निर्णय किया उसका चुनाव ही हमारे पूरे निर्णय की नींव है।
फोटो: साभार गूगल
आप मौजूदा विकल्पों में से क्या चुनते हैं यह हमेशा ही बहुत महत्वपूर्ण रहता है क्योंकि ये चुनाव ही आपके जीवन की दिशा और दशा को निर्धारित करता है, मुझे इस संदर्भ में महाभारत का एक प्रसंग बहुत आंदोलित करता है। भीतर तक छूता है। प्रसंग है कि जब दुर्योधन और अर्जुन दोनों ही योगेश्वर श्रीकृष्ण से आगामी युद्ध के लिए सहायता मांगने गए थे। इस क्षण में श्रीकृष्ण ने पहले दुर्योधन को चुनाव का अवसर दिया एक ओर थी श्रीकृष्ण की चतुरंगिणी सेना जिसका सामरिक महत्व था और दूसरी ओर स्वयं श्रीकृष्ण थे। दुर्योधन ने सेना चुन ली और अर्जुन ने बिना किसी प्रतिकार के योगेश्वर श्रीकृष्ण को। परिणाम हमारे सामने है युगों-युगों से सुना पढ़ा जा रहा है।
बस यही इस पूरे विचार की कीमिया है। हमने कुछ भी चुनते वक्त किस तथ्य को महत्व दिया है, वही रुझान हमारे भविष्य के सुख-दुख, शांति-अशांति। प्रेम या घृणा या फिर सौहार्द और उपद्रव का बीज बनता है और इसी बीज से निर्मित फसल हम जीवन भर काटते हैं। गौर से देखेंगे तो हम ये बहुत आसानी से समझ सकते हैं कि जो कुछ भी हम आज हैं जिस भी आकार प्रकार, स्थिति-मनोस्थिति में हम हैं वो सब आत्यंतिक रूप से हमारे ही चुनाव का नतीजा है भले ही देखने में लगता हो कि कोई परिस्थिति या कोई बाहरी तत्व इसको निर्धारित कर रहे थे लेकिन जब भी गहरे से गहरे तल पर समझने की कोशिश करेंगे तो बहुत साफ-साफ समझ आएगा कि हमने जो भी चुना जिस भी भाव या जरूरत को निर्णायक मान कर कोई भी छोटे से छोटा या बड़े से बड़ा निर्णय किया उसका चुनाव ही हमारे पूरे निर्णय की नींव है।
यदि हम उस आध्यात्मिक आयाम पर नहीं है जहां पर उपनिषदों के नेति-नेति को हम जीवन में उतार पाए हैं तो फिर हमारे पास चुनाव का ही विकल्प बचता है और यदि चुनना ही है तो फिर आपके चुनाव की प्रक्रिया पर डर, असुरक्षा, अशांति और घृणा नहीं बल्कि प्रेम, अभय, शांति और खुशी का असर होना चाहिए। जब चुनना ही है तो उस विकल्प को चुनिए जो आपको अधिक खुश, अधिक शांत और प्रेम पूर्ण बनाता हो…। ये संभव है कि आपके इस चुनाव को सामाजिक जीवन में अमान्य किया जाए या फिर आपको जरा सा असमान्य समझा जाए लेकिन ये भी एक चुनाव ही होगा कि आप दुनिया के नजरिए को महत्व देते हैं या अपने नजरिए को। फिर से चुनना ही है तो दुनिया या खुद के बीच खुद को चुनिए। थोड़ा सा मुश्किल होगा लेकिन मेरा दावा है बहुत सुखद अनुभूति दे जाएगा और एक बार जब भी हम ये फिल्टर लगाना सीख जाएंगे तो हर निर्णय न सिर्फ आसान बल्कि ज्यादा प्रैक्टिकल होगा, ज्यादा संवेदनपूर्ण होगा।
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