मनस्वी अपर्णा II
आज़ादी का अर्थ क्या है? वह कौन सी अवस्था होती है या कौन सी स्थिति होती है जब हम अपने आप को या अन्य किसी भी व्यक्ति को आज़ाद या गुलाम कहते हैं? और किन अर्थों में? क्या आज़ादी कोई भौतिक, शारीरिक या भौगोलिक अवस्था है? दरअसल ये सवाल इसलिए उठता है और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मोटे तौर पर आज़ाद होने की सभी शर्तों को पूरा करते हुए नज़र आते लोग असल में ज़हनी तौर पर किसी न किसी बेड़ी से बंधे हुए पाए जाते हैं… इस बात को ज़रा विस्तार में समझते हैं।
हम आज़ादी का अर्थ ये समझते हैं कि हम पर किसी का अंकुश या अधिकार नहीं है, हम किसी ऐसे देश में बसते हैं जहां हमको अपनी तरह का जीवन जीने का या चुनने का अधिकार है, हम किसी और के नियम कानून से नहीं बल्कि अपने आप के नियमों से संचालित होते हैं… बाहरी तौर पर ये सब सही ही लगता है लेकिन आंतरिक रूप से बात बिलकुल जुदा होती है।
जब तक हमारा मन किसी भी तरह के दायरों में सोचता है हमारी आज़ादी थोथी है, मिथ्या है, भ्रम है चाहे कितनी ही ज़ोर से हम इसका उद्घोष क्यों न करते हों। ये उद्घोष भी उथला है क्योंकि आंतरिक रूप से हमारा व्यवहार किसी खूंटे से बंधे हुए जानवर जैसा ही होता है ये और बात है कि हमारी रस्सी और हमारा खूंटा दृश्य में नहीं होते। ये भी होता है कि हमारी रस्सी का दायरा कई बार इतना बड़ा होता है कि हमको ये भ्रम सा होने लगता है कि कोई रस्सी बंधी ही नहीं है। इसे यों भी समझ सकते हैं कि हम अपने जीवन में जिस भी चीज़ को चुनाव मानते हैं और हमको लगता है कि वो चुन कर हमने अपनी आज़ादी को सार्थक किया है उस सबको फिर एक बार सोच कर देखिए क्या सच में हमने अपना निष्पक्ष निर्णय लिया होता है? या फिर हमने पहले से ही मौजूद विकल्पों में से किसी को चुन लिया है? क्या उन विकल्पों के इतर कुछ चुनने की आज़ादी है हमारे पास?
आज़ादी शुद्ध रूप से मानसिक और आत्यंतिक अवस्था है ये ऐसी चित्त दशा है, जिसमें हम कहीं भी किसी भी हाल में हो आज़ाद रहते हैं, कोई भी रस्म-रिवाज़,धन दौलत, पद प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, यश-अपयश या कैसा भी कोई भी संबंध हमारी राह में बाधक नहीं होता, न ही हमारे निर्णयों पर या फिर हमारे चुनाव पर कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियंत्रण ही करता है।
आपने नौकरी की जगह बिजनेस चुना या अरेंज मैरिज की जगह लव मैरिज को चुना या गांव के बजाय शहर चुना या हिंदी की जगह अंग्रेजी भाषा को चुना या विज्ञान की जगह साहित्य चुना… क्या सच में इन सब चुनावों में कोई भी आपका स्वतंत्र चुनाव है? क्या ये ठीक वैसा नहीं है कि हम को दो राजनीतिक पार्टियों के बीच किसी एक को चुनना है जो देखने में ज़रूर वैकल्पिक लगता है लेकिन असल में होता नहीं है। क्योंकि हम सामने प्रस्तुत प्रत्याशियों में से ही किसी को चुन रहे होते हैं।
ये सब उदाहरण जो मैंने दिए हैं, ये सब बस आज़ादी का भ्रम पैदा करते हैं और इस तरह के चुनावों को अपना चुनाव मान कर अपनी आज़ादी की हुंकार भरने वाले लोग इस छद्म आज़ादी की तरह ही खोखले होते हैं। फिर प्रश्न खड़ा होता है कि ये आज़ादी नहीं है तो फिर क्या है आज़ादी? आज़ादी सच में बहुत विराट घटना है और इसका कोई संबंध शारीरिक या भौतिक अवस्था से नहीं होता। आज़ादी शुद्ध रूप से मानसिक और आत्यंतिक अवस्था है ये ऐसी चित्त दशा है, जिसमें हम कहीं भी किसी भी हाल में हों, आज़ाद रहते हैं, कोई भी रस्म-रिवाज़, धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा, मान-सम्मान,यश-अपयश या कैसा भी कोई भी संबंध हमारी राह में बाधक नहीं होता, न ही हमारे निर्णयों पर या फिर हमारे चुनाव पर कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियंत्रण ही करता है।
इस ढंग से आज़ाद होना सही मायनों में आज़ाद होना है जिसमें आपका मन-मस्तिष्क निर्बाध रूप से स्वतंत्र होता है। हालांकि इस भावदशा को जीना कठिन बात है क्योंकि हमको अनजाने ही बेड़ियों से बंधे होने की आदत सी होती है और कई बार तो इतनी बुरी आदत होती है कि ये बेड़ियां हमको बेड़ी नहीं बल्कि किसी बहुमूल्य आभूषण की तरह लगती है, लेकिन फिर भी अगर एक बार किसी भी तरह अगर हम इस मानसिक आज़ादी का स्वाद चख लेते हैं तो फिर आगे यात्रा थोड़ी सुगम हो जाती है। मज़े की बात ये है कि जिस भी दिन हम आत्यंतिक रूप से अपने आज़ाद होने की उदघोषणा कर देते हैं हम उसी दिन उसी पल आज़ाद हो जाते हैं, भले ही शारीरिक रूप से हम किसी कारागृह में क्यों न कैद हों।
बतौर मनुष्य अगर कोई भी कीमती चीज़ है तो वो ये आज़ादी ही है और अगर हम व्यक्तिगत या चित्तगत उन्नति की ओर अग्रसर हैं तो हमको इस आज़ादी का उद्घोष करना ही चाहिए।
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