बाल वाटिका हितोपदेश

मैं

चित्र साभार गूगल

मधु त्यागी II

अथर्व की अपने गुरु में गहन आस्था थी, उसके मन में अपार श्रद्धा थी गुरु के प्रति। गुरु से बिछड़े बहुत समय हो गया था के उसे गुरु से मिलने को मन आतुर था सो निकल पड़ा घर से रास्ते में अनेक कठिनाइयाँ आईं पर वह गुरु का नाम जपता रहा और मुश्किलें खुद-ब-खुद दूर होती गईं। अब उसके सामने गहरी नदी अपने पूरे उफान पर थी। नदी के किनारे पहुँचा, अपने गुरु का नाम लेते हुए पानी पर कदम रखता रहा और गुरु का नाम जपते जपते नदी पार कर गुरु की कुटिया में पहुँच गया।

गुरु ने शिष्य को देखा तो खुशी की ठिकाना ना रहा।

गुरु आश्चर्य से बोले, “वत्स मार्ग कठिन था और आज तो नदी भी अपने पूरे उफान पर है, तुम इतनी मुश्किलों को और नदी के उफान को पार करने में कैसे सफल हुए?”

शिष्य ने विस्तार पूर्वक अपना अनुभव गुरु के समक्ष व्यक्त किया। क्षण भर में गुरु का ध्यान भंग हुआ और उन्होंने सोचा मेरे नाम में इतनी शक्ति है कि मेरा नाम लेकर शिष्य नदी पार कर सकता है तो मैं तो बहुत महान और शक्तिशाली हूँ।

अहंकारवश अगले दिन गुरु जी ने नदी पार करने के लिए . मैं… नाव का सहारा ना लेकर, नदी के पानी पर पैर रखकर “मैं…. मैं…” का जाप आरंभ कर दिया। पानी पर पाँव रखते ही गुरु जी नदी में डूबने लगे और देखते ही देखते उनका प्राणांत हो गया।

साभार : लघुकथा संग्रह ‘मंजुषा’ से, प्रकाशक : सर्वभाषा ट्रस्ट

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Ashrut Purva

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