संस्मरण

अधसूखे आलू के पापड़ का स्वाद

चित्र साभार गूगल

लिली II

आलू के पापड़ बनाते समय मम्मी की नज़र से बचाकर किसी ने पापड़ के लिए गूधा हुआ ‘आलू मैश’ खाया है? लिखते वक्त जुबान पर उसका स्वाद आ गया… और जब मम्मी बोलती थीं जरा छत पर पापड़ पलट आओ” तब अधसूखे पापड़ों को पलटते हुए एक दो पापड़ खाने में जो मज़ा आता था आज यकायक उसकी याद ताजा हो गई । जो भी कहिए अपने हाथ से बना कर ऐसी चोरियां करने में वह आनंद नही आता।

होली के एक दो सप्ताह पहले से ही शुरू हो जाती थीं तैयारियां, आलू के चिप्स,साबूदाने और चावल के पापड़, बेसन के सेव और ना जाने क्या क्या। शाम को बाहर निकलते ही पास-पड़ोस की आंटी जी लोगों का आपस में चर्चा करना- किसने कितने किलो आलू के पापड़/चिप्स बना लिए। कौन अभी किस कारण बाजार से आलू नहीं ला पाया आदि-आदि। हम लड़कियों का काम होता था अपनी माँओं का हाथ बटाना । इस ‘हाथ बटाई’ में थोड़ी सी ढिलाई होते ही माता जी लोग अपने ‘शाश्वत लगाम खिंचाई’ बाण छोड़तीं- कोई काम करने में दिल नहीं लगता देखो जाकर ४६ वाली भाभी जी की लड़कियों को,शाम को होली मिलने जाओ तो कितना कुछ बना कर टेबल सजा देतीं हैं,एक तुम लोग हो किसी काम का शउर नहीं बस बत्तीसी निपड़ने को कोई बोल दे”,मम्मी जी के अचूक वाक् बाण भेद जाते और हम भी सोचने लगते इसबार क्या नया बनाएं ताकि हमारे लिए भी पड़ोस वाली आंटी जी लोग अपनी लड़कियों पर यही शाश्वत वाक बाण चलाएं। हम लड़कियों की पलटन जब इकट्ठा होती थी तब हमें भी अपनी-अपनी माताश्री जनों के इस कूटनीतिक अभियान का पता चल जाता था।

फिर आता होलिका-दहन वाला दिन,जब चौराहे पर सजी होलिका-स्थल पर शाम होते ही लाउड-स्पीकर पर गाने बजने शुरू हो जाते थे-

भंग का रंग जमा हो चकाचक,
   फिर लो पान चबाए,
    अरे ऐसा झटका
    लगे जिया पे
     पुनर्जनम होई जाए”

रंग बरसे भीगे चुनर वाली ..रंग बरसे

होली आई रे कन्हाई,रंग बरसे
सुना दे ज़रा बंसुरी

आर यू रेडी…आर यू रेडी नाकाबंदी नाकाबंदी

ये गाने होली की फगुनाहट में घुलती भंग के समान लगते थे । गजब की उत्साही तरंगें रक्त के साथ नसों में प्रवाहित हो जाती थीं। मैं अक्सर घर के किसी कोने में जाकर इन गानों पर एक-दो बार थोड़ी कमर हिलाकर,आ जाती थी।
फिर शुरू होती थी गुझिया बनाने की तैयारी।पूरा परिवार बैठकर गुझिया बनाता था। मम्मी का काम बेलना और तलना,मेरा और बाबा का काम गुझिया भरना,छोटी बहन को छुट-पुट काम थमा दिए जाते थे,कपड़ा भिगा कर लाना,टोकरी में पेपर लगाना,मैदे का घोल बनाना,और जब वो गुझिया भरने के लिए ज़िद करती थी,मम्मी उसको टाल जाती ये कह कर कि -“नही भर पाओगी,अभी छोटी हो,किनारे फट जाएगें और तलने वाला तेल खराब होगा” बिचारी का मुँह बन जाता था,पर उसकी शक्ल देखकर दो-तीन गुझिया उसको भी भरने को दे दी जाती थी। देर रात तक 2 किलो खोवे की गुझिया बनाओ कार्यक्रम चलता था,और लाउड-स्पीकर के गानों की ताल पर मेरी गुझिया नाचती रहती थीं।

होली वाले दिन मैं अक्सर घर में छिपकर बैठी रहती थी,रंगों का डर नही था,पर हुड़दंग से डर लगता था।मुहल्ले की टोली घर पर आती तो मम्मी डांट कर बाहर निकलवाती थीं। पर मुझे किसी को रंग लगाने में खास आनंद नही आता था मैं बड़ी सज्जनता के साथ हाथ-मुँह बिना किसी विरोध-प्रतिरोध के रंग लगाने के लिए बढ़ा देती थी,और सबके माथे,गाल पर अबीर/गुलाल लगा लेती।

जब घर से सब टोली के साथ काॅलोनी में होली खेलने चले जाते थे,तब मैं घर में अपने अंदाज़ में होली मनाती थी,एकदम फिल्मी इश्टाइल में आंगन में गुलाल उड़ा-उड़ा कर। शीशे के सामने खड़े होकर अपने ही मुँह पर हर रंग के गुलाल लगा कर। जमकर होली खेलने के बाद पक्के रंगों को छुड़ाने की मशक्कत करते हुए रंग लगाने वाले को याद करना- ये हरा रंग फलां आंटी जी पोतीं थीं,उफ़्फ निकलने का नाम ही नहीं ले रहा!” फिर उत्साह और उन्माद की गुलाली थकान लिए थोड़ा आराम कर पुनः शाम के लिए फिर से तैयार होना। झुंड बनाकर तूफान की तरह एक घर में घुसना और बवंडर मचा कर दूसरे घर के लिए रवाना हो जाना। अक्सर हम लड़कियों और लड़कों के झुंडों को निपटा कर हमारे माता-पिता आस-पड़ोस में होली मिलन के लिए निकलने की योजना रखते थे। होली मिलन का यह सिलसिला कई दिनों तक चलता ही रहता था। त्यौहार की वैसी उमंग अब बहुत याद आती है। बड़े शहरों में मेल-मिलाप का अभाव बहुत अखरता है। व्यस्तताओं में जीवन अस्त-व्यस्त सा दिखता है। ऐसे में त्यौहारों के लिए मिलने वाली छुट्टियां चुपचाप घर में पड़े रहकर आराम करने या फिर सोशल मीडिया पर शब्दों की होली खेलने तक ही सीमित रह गया है।

जो भी हो इस त्यौहार की तासीर मुझे बेहद पसंद है…इंसानी  सपनो सी रंगीन! आज भी खेलती नही हूँ पर होली के रंग मेरे एहसासों और पुरानी स्मृतियों के गलियारों को रंग से सराबोर किए रहते हैं। आप सभी के सपनों को सतरंगी बनाती होली की रंगमयी शुभकामनाएं देते हुए यह कामना करती हूँ कि- मन में रंगोंत्सव की रंगमयी तासीर और जुबान पर अधसूखे आलू के पापड़ का स्वाद सदा बना रहे।

About the author

lily mitra

मेरी अभिव्यक्तियाँ ही मेरा परिचय
प्रकाशित पुस्तकें : एकल काव्य संग्रह - 'अतृप्ता '
: सांझा संकलन - 'सदानीरा है प्यार ', शब्द शब्द कस्तूरी ''

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