मनस्वी अपर्णा II
हमारे पैदा होते ही जो सबसे पहला तोहफा हमें मिलता है वो होते हैं रिश्ते। जीवनसाथी को छोड़ कर करीबन हर रिश्ता हमें जन्मजात ही मिलता है इसमें चुनाव का कोई अवसर ही नहीं होता। हमें उन ही लोगों के साथ तादात्म्य स्थापित करते हुए अपनी जीवन यात्रा को आगे बढ़ाना होता है जो किसी न किसी रिश्ते के नाम पर हमें उपलब्ध होते हैं। क्योंकि ये रिश्ते और इनसे जुड़े लोग ही हमारा परिवार कहलाते हैं। तो सदा ये अपेक्षा की जाती है कि इन के साथ हमारे रिश्ते सुचारू और सुदृढ़ रहें। ऐसा होता है तो कोई बुरी बात नहीं है लेकिन अक्सर ऐसा हो नहीं पाता… इसके पार्श्व में कई छोटे बड़े कारण होते हैं। फिर भी जो मुख्य कारण है, वह है अभय और विश्वास की कमी।
इसे थोड़ा विस्तार से समझते हैं हम सबके पास कुछ ऐसे लोग होते हैं जिनके सानिध्य में हमारा व्यक्तित्व विस्तार पाता है। हमारा चित्त शांत और प्रफुल्लित होता है, जहां हम खु़द को पूर्णता में प्रकट और प्रस्तुत कर पाते हैं। निश्चित रूप से हम अपना अधिकांश समय इन लोगों के साथ ही बिताना चाहेंगे… लेकिन अक्सर इस तरह के व्यक्तिव हमारे परिवार के या जाति समाज के न होकर कोई और लोग होते हैं जिनके साथ किसी एक्स फैक्टर की वजह से हमारा गहरा आकर्षण और आत्मीय जुड़ाव हो जाता है… और एक निश्चित समय और स्थिति के बाद हम पर ये दबाव बनाया जाने लगता है कि चाहे हमारा संबंध कितना ही आत्मीय-गहरा और अच्छा हो हमको एक दूसरे के साथ की इजाजत नहीं है। क्यों नहीं है? क्योंकि दुनियादारी की सीख ये कहती है कि हम सब सिर्फ उन्हीं के साथ प्रगाढ़ संबंधों में रह सकते हैं जो कि हमारे सगे हैं, जिनके पास हमारे सर्वाधिकार सुरक्षित है। भले ही उनके साथ हमारा कोई तादात्म्य हो या न हो।
गौर करने वाली बात है कि हमारे जीवन में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनके पास जाते ही हमारा व्यक्तित्व सिकुड़ने लगता है, हमारा चित्त अशांत हो जाता है और हम खुद को छिपाना शुरू कर देते हैं। ये लोग अक्सर हमारे परिवार के, हमारी जाति समाज के, हमारे नजदीकी दायरे वाले लोग होते हैं। होना तो ये चाहिए कि जो रिश्ते हमें जन्मजात या विरासत में मिले हैं उनके साथ हमने ज्यादा सहज और सरल होना चाहिए क्योंकि अंतत: वही हमारे ज्यादा करीब होते हैं और हमें ज्यादा करीब से जानने समझने का दावा करते हैं। लेकिन ऐसा होता नहीं। क्यों? क्योंक परिवार-समाज और दूसरी संस्थाएं हम पर बहुत सारी अपेक्षाएं सही-गलत, उचित-अनुचित, मान्य-अमान्य की धारणाएं आरोपित किए रहती हैं और लगातार हमको इन मानदंडों पे कसती रहती है। जरा भी मानक मात्रक से इधर उधर व्यवहार हुआ और हमारा चरित्र चित्रण नए ढंग से शुरू हो जाता है या यूं कहें कि चरित्र हनन शुरू हो जाता है। हम दिन ब दिन बुरे और बुरे की श्रेणी में धकेले होते जाते हैं…।
अभय यानी एक ऐसा अघोषित वचन जो हमसे जुड़े हमारे आत्मीय व्यक्ति को जैसा वो है वैसा होने, वैसा ही खुद को प्रस्तुत करने और उसी मनोदशा और देह दशा में जीने की स्वतंत्रता देता है, जो उसके व्यक्तित्व को किसी भी तरह की श्रेणियों में नहीं बांटता न ही अनावश्यक जस्टिफिकेशन में पड़ता है, जो किसी को भी जस का तस पूर्ण रूप से स्वीकार करता है।
फोटो : साभार गूगल
नतीजन हम खुद को छिपाना शुरू कर देते हैं। अपने को सिकोड़ना शुरू कर देते हैं… बुरा कहलाने का भय, गलत समझे जाने का भय, चरित्र पर अनावश्यक दोषारोपण का भय हमसे ये सब करवाता है और निश्चित तौर पर इस स्थिति में हमारे व्यक्तित्व में कोई सकारात्मक प्रभाव तो होने से रहा…।
हम अपने से जुड़े किसी भी व्यक्ति को जो सर्वोत्तम भेंट दे सकते हैं वो है-अभय। अब प्रश्न ये उठता है कि अभय क्या है? और इसे कैसे दिया जाता है। अभय यानी एक ऐसा अघोषित वचन जो हमसे जुड़े हमारे आत्मीय व्यक्ति को जैसा वो है वैसा होने, वैसा ही खुद को प्रस्तुत करने और उसी मनोदशा और देह दशा में जीने की स्वतंत्रता देता है, जो उसके व्यक्तित्व को किसी भी तरह की श्रेणियों में नहीं बांटता न ही अनावश्यक जस्टिफिकेशन में पड़ता है, जो किसी को भी जस का तस पूर्ण रूप से स्वीकार करता है। अंगीकार करता है और उसी स्वरूप और भाव में जीने के लिए और हर वो काम जो वो आत्यंतिक रूप से करना चाहता है उसके लिए स्वतंत्र रखता है। यही है- अभय। और जब हम किसी को पूर्ण अभय में होने की सुविधा देते हैं तो उसके लिए इससे बढ़ कर सौगात कोई और हो नहीं सकती।
…तो स्वजनों को, मित्रों को, जीवनसाथी को और आपसे जुड़े हर व्यक्ति को भय, निराशा और कुंठा नहीं बल्कि अभय, आशा और उत्कंठा परोसिए जिंदगी का जायका यकीनन दोगुना हो जाएगा। बेजायका जिंदगी हम जी ही रहे हैं और इसके पीछे वो सारे नियम कानून और बंधन है जो हमने भय से निर्देशित होकर बनाए हैं। इस तरह हमने खुद को भी जंजीरों में जकड़ लिया है और दूसरे को भी सदा जकड़ने को तैयार रहते हैं। हमारा हर कदम भय से संचालित है और इसलिए इतना दुखदायी भी है। अपने आप को हर तरह से समाज और परिवार की नजर में परफेक्ट बना लेने के बाद भी हमारा जीवन नीरस और दुखी होता है। वजह है भय। इसको अभय से बदल कर देखिए वो होने लगेगा जो आप सच में चाहते हैं।
प्रमुखतया दो खंडों में लेख है। प्रथम अंश स्व से पलायन की बात कहता है । इसे मनोविज्ञान के द्वारा समझा जा सकता है। जो रुचिकर लगे भले ही बाहर का हो जुड़ जाइए और निजी पारिवारिक और भारतीय सामाजिक संरचना को आघात पहुंचाईए। यही तो समझ पा रहा कुछ इतर तो मिला नहीं।
दूसरा खंड अभय। इस अभय की जो परिभाषा दी गयी है उसमें पाश्चात्य सभ्यता की बयार है। मैं भारत की सोंधी मिट्टी की खुश्बू तलाशता रह गया।
लेखन शैली प्रशंसनीय। अभिव्यक्ति मस्त। वैचारिक कोलाहल मिला इस लेख में😊