अश्रुतपूर्वा II
लेखिका/कवयित्री संध्या यादव जी की जन्म एवं कर्मभूमि मुंबई है। एम.ए, बी.एड तक की उच्चशिक्षा प्राप्त कर वे मुंबई के आर. डी. नेशनल महाविद्यालय में अध्यापन कार्य कर रहीं हैं। उनके अब तक दो काव्य-संग्रह ‘दूर होती नज़दीकियाँ’ (2016), और ‘चिनिया के पापा’(2019)में प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न पत्र एवं पत्रिकाओं में उनके आलेख, कहानियां, लघुकथाएं, कविताएं प्रकाशित होती रहती हैं। हाल ही में 8 मार्च अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर माननीय राजपाल श्री भगत सिंह कोश्यारी जी के कर कमलों द्वारा ‘वाग्धारा स्पेशल ज्यूरी अवॉर्ड’ से भी सम्मानित किया जा चुका है।
लेखन की शुरुवात को लेकर संध्या जी बताती हैं- “लिखना कब से शुरू की, पता नहीं पर इतना याद है क्लास में मेरे निबंध बहुत अच्छे होते थे और अक्सर मुझे अपना निबंध पढ़ कर सुनाने के लिये कहा जाता था और मेरी छाती गर्व से चौड़ी हो जाती। जब अपना टूटा -फूटा कुछ माँ -पिताजी को सुनाती तो छोटा भाई कहता-दीदी कहाँ से उड़ाई? मैं जताने की कोशिश करती मैंने लिखा है ।वो चिढ़ाता रहता, ऐसे समय माँ और पिताजी ढाल बन जाते ।मैं लिख रही हूँ या लिख सकती हूँ ये सोचने की बुद्धि मेरे पास तब भी नहीं थी पर खुशी होती इस बात की कि गणित और विज्ञान जैसे विषयों में फिसड्डी सी मैं किसी विषय में तो अपने शिक्षकों और माता -पिता की नजरों में ‘अच्छी बच्ची’ बन ही जाती।“
वे लिख सकती हैं इस बात पर विश्वास पहली बार उन्हे तब हुआ जब संध्या जी ने स्कूल के लिए टी.वी पर आने वाले सिरियल को देख द्रौपदी पर एक कविता लिखी थी। छोटी वय में लिखी गई कविता अब उनको शब्दों का जमावड़ा तो लगी पर हाँ, उस उम्र में द्रौपदी की पीड़ा को महसूस करने की संवेदना उनमें अंकुरित हो चुकी थी।तभी से वे अपनी छोटी-बड़ी सभी प्रकार की अनुभूतियों को डायरी में लिखती गईं,पर कवि बनने की चाह उनमें कभी नहीं हुई।
चाह न होने पर भी नियति शायद इन्हे इसी चाक पर रख भूल गयी और समय की थपथपाहट ने उनके रचनाकार रूप में अरूप सा गढ़ ही दिया।उम्र के साथ साथ संवेदना जड़ पकड़ती गयी और कविता, लेख, हास्य, व्यंग्य, लघुकथा, डायरी के रंगबिरंगे फूल पल्लवित होते रहे ।फिर एक बहुत लंबा अरसा गुजर गया लिखना नही हुआ ऐसा तो नहीं पर उसकी टहनियाँ अंदर की ओर झुक गयीं ।रचनाकार के रूप में उनकी सबसे पहली उपलब्धि,पहली किताब “दूर होती नजदिकियाँ के रूप में हुई । उसमें भी सिर्फ एक साल के पहले की रचनाएँ ही हैं। उसके बाद दूसरी किताब “चिनिया के पापा ” आयी। 2016 और 2018 के बीच में उनकी रचनाएँ वक्त की चाक से उतर कर भट्टी में अधपकी हो चुकी थीं जो रचना से भी पता चलता है।
संध्या जी की कविताएँ स्वभाव से अति संवेदनशील होने के साथ-साथ एक विनम्र विद्रोह की वाहक हैं। समाज में फैली विडंबनाओं, असंतोष, अन्याय, उत्पीड़न आक्रोश कवयित्री के मन को उद्वेलित करता है, जिसके फलस्वरूप एक विनम्र विद्रोह उनकी कविताओं के रूप में अंतर्मन से निकाल बाहर कदम रखता है। संवेदनशील कवयित्री की कलम ने समाज की पीड़ा को बहुत शिद्दत से खुद में महसूस किया है। उनकी अभिव्यक्तियाँ पाठक के अंतर्मन को सिहरा देती हैं जिनका प्रभाव मन-मस्तिष्क से सहजता से उतरता नहीं। समाज के दोगलेपन पर कटाक्ष करती एक कविता देखें-
बलात्कार के बाद,
कई दिनों तक होता रहा,
अलग -अलग तरीके से बलात्कार ।
टीवी, अखबार, मिड़िया और
सड़क पर जलती मोमबत्तियाँ,
खींच लायी लड़की को
बंद, अँधेरे कमरे से
बार -बार, कई बार…
लड़की हैरान है…लड़की है परेशान
कितने लोग…कितनी बार
करेंगे यूँ मेरा सामूहिक बलात्कार?
बाप मुँह छिपाता फिरता है
अम्मा कोख को कोसती है।
भैया अपनी पसलियों पर उभरी भूख से,
बहन दीदी की हालत से अंजान,
लाठी, बंदूक, धमकियों से
अब तो पड़ोसी की सहानुभूति से भी घबराते हैं।
लड़की के पास बचा है अब दो ही रास्ता,
पोखर, नदी, समंदर में डूब मरे,
या फिर हाथ में उठा बंदूक बन जाये ,
एक और ‘बैंडिड क्वीन’।
इतिहास देख रहा है आशा भरी नज़रों से,
इतिहास कर रहा है इंतज़ार,
उसे लिखना है आज की तारीख का पन्ना।
लड़की …लड़की
ओ लड़की सुन!
अब लेना अपना निर्णय तू खुद,
लड़की अब कि मत सुनना दिल की
लड़की अब दिमाग से काम ले…
संध्या
कवयित्री का विनम्र-विद्रोह, नारेबाजी, कैन्डल-मार्च, धरना प्रदर्शन जैसे सब कुछ उलट पलट कर रख देने वाले इन्कलाबी भाव नहीं हैं अपितु इसके समानांतर एक परिपक्व क्रोध एक समझदार नाराजगी है। कहन की शैली में एक अद्भुत व्यंग्य है जो बड़े ही मार्मिक ढंग से संध्या जी कागज पर उतरती हैं और समाज को आईना दिखती हैं। विषयों को देखने समझने का अपना एक विशिष्ट दृष्टिकोण है, फिर चाहे वह जीवन, सामाजिक, व्यक्तिक, स्त्री, प्रेम कोई भी विमर्श हो कवयित्री की लेखनी एक वैचारिक उद्वेलन पाठकों के मन में जागृत करने में सफल होती है।
एक पंक्ति देखें –
हर रोज़ ज़िंदगी का हीरा चाटती है
फिर भी मारती नहीं
विषकन्या सी हो गई है
लगती है आस मेरी।
छोटी सी कविता का मर्म व्यक्ति से समिष्ट तक के हृदय को भेद जाता है।इच्छाओं की महत्वाकाँक्षा के यह भाव किसी एक व्यक्ति तक ही सीमित हो सकते हैं क्या? यही विशिष्टता है संध्या जी की लेखनी की जो उनके आलेखों, लघुकथाओं, कहानियों, व्यंग्य-लेखों, कविताओं में परिलक्षित होते हैं । उनकी दूसरी प्रकाशित पुस्तक ‘चिनिया के पापा’ की भूमिका में लेखिका कहती हैं-“एक संवेदनशील व्यक्ति जीवन में कभी सुखी नहीं हो रह सकता क्योंकि उसे अपनी भरी थाली से दूसरे की खाली थाली ज्यादा व्यथित करती है।”
लेखिका मानती हैं कि -अभी भी नियति और समय ठोंक-पीटकर उनकी अभिव्यक्तियों को आकार दे रही है वे और बेहतर कर पाएंगी, ऐसा उनको लगता है क्योंकि उम्र और अनुभव ने सिर्फ उनको ही नहीं कलम को भी प्रौढ़ किया है। उनके भीतर की रचनाधर्मिता की ये उद्दतता है कि उन्हे लगता है- वे अब तक उतना अच्छा नहीं कर पायी हैं जितना कर सकती थीं। उनकी लेखनी ने किसी खेमे या दृष्टिकोण से बँध कर आज तक नहीं लिखा और ना ही भविष्य में लिखने की कोई मंशा रखती हैं। अपनी इस लेखन यात्रा में जो उन्होंने देखा, जिया और अनुभूत किया वही लिखा। संध्या जी चाहती हैं- ‘उनकी कलम उन सब की जबान बन जाये जिनकी पीड़ा अनकही रह गयी या फिर सुनने का लोगों के पास वक्त नहीं। ईश्वर उनके लिखे से कभी संतुष्ट न करे क्योंकि उनकी संतुष्टि ही उनका ठहराव होगा और वे ठहरना नहीं चाहतीं। ‘उनकी यह कामना ईश्वर पूर्ण करें एवं उनकी रचनाएं समिष्टि से लेकर व्यष्टि तक का आईना बने, सार्थकता पाएं। हमारी ओर से संध्या यादव जी को अशेष शुभकामनाएं।
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