राजकुमार गौतम II
और आखिरकार मेरा वह खोटा सिक्का चल ही गया ! खोटा सिक्का यानी मेरा उपन्यास!
तमाम तरह की लेखकीय धंधेबाजी के बीच भी मेरे मन में उपन्यास लिखने की जो एक प्रबल इच्छा थी, उसे मेरी दो वर्षों की टुकड़ा-टुकड़ा मेहनत ने मानो साकार कर दिया था। मन की प्रबल इच्छा को शांत करने का तो यह जुगाड़ था ही, इसके साथ-ही-साथ मैं उपन्यास लिखकर उन तथाकथित मित्रों के मुँह भी बंद कर देना चाहता था जो मुझे देखकर यह कह उठते थे कि, ‘अरे, उपन्यास लिखना ऐरे-गैरों के वश की बात नहीं है!’
उपन्यास-लेखन के दौरान काफी रोब-दाब रहा, दोस्तों को हड़काए रखा, पत्नी को कई बार मायके भेजा, चायवाले का भयंकर बिल झेला, ‘मेरा उपन्यास महान!’ के भ्रम में अपना रक्तचाप बढ़ाया, तब जाकर दो वर्षों में पूरा हुआ डेढ़ सौ पृष्ठों का मेरा उपन्यास।
उपन्यास तुरत-फुरत टाइपिस्ट को दिया। जितनी जल्दी उसने टाइप किया, उतनी ही जल्दी अपना बिल भी उसने थमाया, फिर पांडुलिपि दी एक फ्रीलांस ‘संपादक’ को जिसने उसे संपादित करके प्रेस कापी बनाई, टाइपिस्ट और संपादक-दोनों का भुगतान किया।
फिर शुरू हुआ अपने लेखकीय जीवन का एक नया अनुभव ! इससे पहले जब भी प्रकाशकों के पास अपने कहानी-संग्रह की पांडुलिपि ले जाता था तो वे उपन्यास की माँग किया करते थे, ‘उपन्यास ज्यादा बिकता है। इसलिए उपन्यास लिखो उसे छापेंगे।’ यह कहते हुए प्रकाशकगण कहानी पांडुलिपि की तरफ नजर भी नहीं मारते थे। सो, अब हमने सोचा कि क्यों न किसी नामी-गिरामी प्रकाशक से ही बात चलाई जाए। नतीजतन, कई बड़े प्रकाशकों से फोन पर संपर्क किया, पत्र लिखे, मुलाकातें कीं। और इस तरह बरसों उपन्यास की पांडुलिपि बड़े प्रकाशकों के पास घूमती रही। इस बीच पांडुलिपि पर जगह-जगह दाल, अचार, चाय के चकत्ते नमूदार हुए और थक-हारकर एक रात मैं और पांडुलिपि एक-दूसरे के गले लगकर खूब रोए। पांडुलिपि ने मुझे साफ-साफ शब्दों में कहा कि अगर तुम बेहतर लेखक होते तो मेरी यह दुर्गति नहीं होती। अब मुझसे और अपमान नहीं सहा जाता। तुम मुझे किसी भी गंदे कुएँ में धकेल दो ताकि मेरी आत्मा को तो मुक्ति मिले।
और सचमुच अगले ही दिन से मैं किसी ‘गंदे कुएँ’ की तलाश में निकल पड़ा। छोटे, उनसे छोटे और एकदम छोटे बहुत सारे ऐसे प्रकाशक थे जो वाकई गंदे कुएँ थे। उनमें से कुछ ऐसे थे जो मुझसे पैसा लेकर उपन्यास छापने को तैयार से थे; कुछ ऐसे थे जो पारिश्रमिक के रूप में सिर्फ पचास-साठ प्रतियाँ मुझे देकर ‘जय राम जी की’ कर लेना चाहते थे; कुछ ऐसे थे जो पाँच सौ रुपये में उसे खरीद लेना चाहते थे और कुछ ऐसे भी थे जो उसकी बिक्री की गारंटी मुझसे लेना चाहते थे और फिर समुचित रॉयल्टी देने का वायदा करते थे।
गंदे कुओं की इस गली में मैं तो बेहाल हो गया। ‘ले! और लिख ले उपन्यास ! इसकी वजह से अब तक हजारों का तू घाटा उठा चुका है।’ मेरा मन चीख-चीख उठता। क्या करूँ कुछ समझ नहीं पाता। साहित्य-सृजन की एक परम आदरणीय विधा के साथ इस दुनिया का ऐसा बर्बर सुलूक ।
मेरा उपन्यास वाकई एक खोटा सिक्का साबित हो चला था। मगर किसी के पास कैसा भी खोटा सिक्का हो; सड़ा-गला नोट हो उसे कोई गंदे कुएँ में थोड़े ही फेंक देता है! अपने उपन्यास की पांडुलिपि को मैंने भी सहेज रखा।
समय बीतता गया और मित्रों के व्यंग्य-बाणों की धार और मार भी बढ़ती गई। सभा-समारोहों में प्रकाशकों से मैं मुँह छिपाने लगा और एक असफल उपन्यासकार का अदृश्य बिल्ला मेरे साये से लगातार मानो चिपका रहा।
संयोग की बात यह कि हमारे एक वरिष्ठ साहित्यकार मित्र के घर में दो प्रकार के खोटे सिक्के । एक तो उनकी अपनी कुछेक पांडुलिपियाँ और दूसरा उनका युवा बेरोजगार पुत्र। हम दोनों ने सिर जोड़कर एक दिन यह योजना बनाई कि क्यों न एक खोटे सिक्के से दूसरे खोटे सिक्के को चलाया जाए!
अपने बेटे को उन मित्रवर ने प्रकाशक के पद से नवाजा और अपनी किताब के साथ मेरा उपन्यास भी उसके पहले ही सेट में प्रकाशित कराया।
मेहनत, चापलूसी, कमीशन, ब्लैकमेलिंग, धमकी, सिफारिश और अंगूर की बेटी आदि के बल पर उस होनहार ‘खोटे सिक्के’ ने तड़ातड़ काफी सफलताएँ अर्जित कीं और मेरे उपन्यास को भी अदृश्य पाठकों तक पहुँचाया। एकाध बार मैंने रॉयल्टी का जिक्र किया तो वह दौड़ा-दौड़ा मेरे पास आया और चाय-नाश्ता करने के उपरांत यह बताकर चला गया कि कुछ जगह के पेमेंट्स अटके हुए हैं, क्लियर होते ही वह मुझे भुगतान दे जाएगा! मैं चिंता न करूँ !
उसके इस आश्वासन के बाद मैंने जब पत्नी को फिर से मायके चले जाने की सलाह दी तो वह मेरी मंशा भाँपकर बोली, “फिर उपन्यास लिखने की धुन मन में उठी है क्या ?’ “
“हाँ! देखो पहले वाला उपन्यास तो चल ही गया, अब दूसरा ।”
“रहने दो, बस! एक ही उपन्यास लिखकर हजारों का नुकसान उठा चुके हो।” पत्नी ने मुझे टोका।
“अरे नुकसान कहाँ! देखो, टाइपिस्ट, फोनवाला, प्रेस-कंपोजिटर, प्रिंटर, कागजी, बाइंडर, आर्टिस्ट, ब्लाक-मेकर, बुक-सेलर, प्रेस कापीवाला, प्रकाशक, समीक्षक कमीशनखोर! कितने लोगों को तो फायदा होता है इसमें!”
“ठीक है, फायदा सभी को होता है, लेकिन तुम्हें नहीं। तुम अकेले ऐसे खोटे सिक्के हो जो वाकई कहीं नहीं चलता है।”
“ नहीं चलता तो फेंक दो मुझे किसी गंदे कुएँ में। फेंक क्यों नहीं देती ?” मैं गुस्सा हो आया था।
“जरूर फेंक देती मगर मुझे उम्मीद है कि यह मेरा एकदम खोटा सिक्का भी शायद किसी दिन चल ही जाए।” पत्नी के स्वर में आत्मीयता और शरारत थी।
“तो फिर लिखूँ अगला उपन्यास ?” मेरा भी मन तर हो आया था। “हाँ” पत्नी ने कहा और वह मायके जाने की तैयारी में व्यस्त हो गई।
साभार : व्यंग्य संग्रह ‘अंग्रेजी की रंगरेज़ी’ से
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