धरोहर

जानिए, कैसे शुरू हुई गोवर्धन पूजा की परंपरा

राजकिशोर त्रिपाठी II

नई दिल्ली। पौराणिक मान्यता के अनुसार एक दिन कृष्ण ने सभी ब्रजवासियों को पूजा-पाठ करने की तैयारी करते देखा। तब कृष्ण के पूछने पर माता यशोदा ने बताया कि सभी ब्रजवासी इंद्र देव की पूजा की तैयारी कर रहे हैं।
अपने कर्तव्य की याद दिलाते हैं कृष्ण
कृष्ण के यह कहने पर कि लोग इंद्र की पूजा क्यों करते हैं तो माता यशोदा कहती हैं कि इंद्र वर्षा के देवता हैं। उनकी पूजा करने से बारिश होती है जिससे अनाज पैदा होता है। हमारी गायों को चारा मिलता है। तब कृष्ण कहते हैं कि वर्षा करना तो इंद्रदेव का कर्तव्य है, इसमें पूजा करने की क्या आवश्यकता। यदि पूजा करनी ही है तो गोवर्धन पर्वत की करनी चाहिए, क्योंकि गोर्वधन हमारी रक्षा करते हैं और हमारे जीवन यापन का साधन भी गोर्वधन ही हैं। हमारी गायें भी वहीं चरती हैं और हमें फल-फूल, सब्जियां भी गोवर्धन पर्वत से ही प्राप्त होती हैं।
ऐसे तोड़ा इंद्र का अहंकार
कहते हैं कृष्ण के कहने पर ब्रजवासी देवराज इंद्र की बजाय गोवर्धन पर्वत की पूजा करने लगे। इस बात को इंद्र ने अन्यथा लिया। अपना अपमान समझा। क्रोध में आकर उन्होंने घनघोर बारिश शुरू कर दी, जिससे चारों ओर तबाही मचने लगी। सभी अपने परिवार और पशुओं को बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगे। तब ब्रजवासियों को अहसास हुआ कि कृष्ण की बात मानने के कारण ही हमें इंद्र का क्रोध सहन करना पड़ा है।
प्रजा की रक्षा करने का संदेश देते हैं कृष्ण
कृष्ण ने इंद्र का अहंकार दूर करने और प्रजा की रक्षा के लिए गोवर्धन पर्वत को ही अपनी उंगली पर उठा लिया। बारिश और बाढ़ से बचने के लिए सभी ब्रजवासियों ने गोवर्धन पर्वत के नीचे शरण ली। कृष्ण का चमत्कार देख कर इंद्र को अपनी भूल का अहसास हुआ कि ये कोई साधारण बालक नहीं है। उन्होंने श्रीकृष्ण से क्षमा याचना की। कहते हैं तभी से गोर्वधन पूजा की परंपरा की शुरुआत हुई।
क्यों  हर रोज घट रहा है गोवर्धन पर्वत
कहते हैं पुलस्त्य ऋषि ने अपने साथ चलने की बात न मानने के कारण गोर्वधन पर्वत को श्राप दे दिया था। उन्होंने कहा था कि आज से प्रतिदिन तिल-तिल कर तुम्हारा क्षरण होता रहेगा। और फिर एक दिन आएगा जब तुम धरती में विलीन हो जाओगे। तभी से गोवर्धन पर्वत का लगातार क्षरण हो रहा है। कहा जाता है कि कलियुग के अंत तक यह धरती में पूरा समा जाएगा।
(पौराणिक मान्यताओं पर आधारित)  

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