धरोहर

एक नहीं कई संदेश देता है छठ

संजय II

नई दिल्ली। कोई ऐसा त्योहार नहीं बचा जिस पर महंगाई की मार न पड़ी हो। मगर छठ ऐसा पर्व है जिसे क्या अमीर और क्या गरीब, सब इसे उल्लास के साथ मनाते हैं। सामर्थ्य अनुसार श्रद्धालु स्त्री और पुरुष व्रत रखते हैं। लेकिन यह भी सच है कि मिल-जुल कर छठ करने की परिपाटी अब कमजोर हो रही है। नाते-रिश्तेदारों और पड़ोसियों के बीच बढ़ती दूरियों का भी असर पड़ा है। इसके साथ ही यह पर्व जीवन के कुछ संदेश भी देता है। यह संदेश है स्वच्छता का। नदियों के संरक्षण का । अस्ताचल सूर्य को नमन करने का । यानी उगते सूरज को ही नहीं डूबते सूर्य का भी हमें मान रखना चाहिए।
स्वच्छता का संदेश
यह पूर्वी भारत का महापर्व जरूर है, मगर अब दुनिया के कोने कोने में बसे श्रद्धालु इसे मनाते हैं। छठ नजदीक आते ही गांव की याद आती है। तब हफ्तों पहले घरों की साफ-सफाई होती थी। गलियों-चौराहों और घाटों को स्वच्छ किया जाता था। घाट तक जाने वाले रास्ते में रोशनी की जाती था। व्रती अपने हाथों से गेहूं धोकर धूप में सुखाते थे ताकि कोई पक्षी भी उसे जूठा न कर पाए। व्रती महिलाएं इसे पीसती थीं। इस आटे में गुड़-किशमिश ौर शुद्ध घी मिला कर खस्ता ठेकुआ बनाया जाता था। क्या ही यह मिठास भरा होता था। इसकी खुशबू आसपड़ोस तक फैल जाती थी। आम की लकड़ी पर सूर्य देवता को अर्ध्य देने के लिए यह प्रसाद बनता था।
चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व की तैयारी बहुत पहले से शुरू हो जाती थी। सूप, नारियल, बांस का टोकरा, ठेकुआ, चावल के लड्डू, सिंघाड़ा, बड़ा नींबू, शकरकंद और केले की घौंद सूप में रख कर घाट पर ले जाया जाता था। घर के पुरुष सदस्य घाट पर जाते और और वहां अपनी सुविधानुसार जगह देख कर गन्ने की सहायता से जगह सुरक्षित कर लेते। दूसरी ओर पूजा की सारी सामग्री एक कमरे में सुरक्षित रखी जाती ताकि कोई छुए नहीं। फिर नहाय खाय से व्रत शुरू होता। खरना के दिन खीर-पूड़ी बनती। इसे शाम में पूजा के बाद व्रती खाते। फिर केले के पत्ते पर बाकी लोगों को दिया जाता।
यह पर्व समानता का देता है संदेश
अगले दिन सुबह पीली साड़ी में लिपटी परवैतिन उगते सूर्य को अर्ध्य देने निकल पड़तीं। साथ में निकलता पूरी परिवार। व्रती महिलाओं के सिर पर पूजा का सामग्री स्कर चलतीं। उधर, टोकरा लिए घरों से पुरुष निकलते। इस सूपों पर जलता शुद्ध घी का दीया मानो व्यक्ति और समाज की बुराइयों को जलाता हुआ घाट तक पहुंचता था। पीछे परिवार और पास-पड़ोस के लोग छठ के गीत गाते हुए घाट की तरफ धीरे-धीरे चलते- कांच ही बांस के बगहिया बहगी लचकत जाए।मधुर गीत सुन कर श्रद्धालु छठी मैया की भक्ति में खो जाते। चार दिन तक चलने वाला यह आयोजन देख कर ऐसा लगता मानो हर मनुष्य एक समान है। सचमुच यह पर्व समानता का संदेश देता है।
श्रद्धा पर हावी हुआ बाजार
आधुनिकता के दौर में बाजार इस पावन पर्व पर भी हावी हुआ है। बांस के सूप और टोकरी पीतल और चांदी में बदल गए। ठेकुआ की जगह अब कई तरह की मिठाइयों ने ले ली है। वहीं एकल परिवार के बढ़ते चलन ने छठ जैसे महापर्व के सामूहिक आयोजन को छोटा कर दिया। सौ लोगों तक पहुंचने वाला प्रसाद अब दस लोगों तक भी नहीं पहुंचता। लोग प्रसाद का इंतजार करते रह जाते हैं।
सामूहिकता की भावना खो गई
कठिन व्रत रखने वाले न अब श्रद्धालु हैं और न ही सामूहिकता की वैसी भावना। नदियों में गंदगी के कारण लोगों मे घर की छतों पर ही अर्ध्य देना शुरू कर दिया। आम की लकड़ी की जगह गैस के चूल्हों ने ले ली। इसी पर प्रसाद बनने लगा। जांता में गेहूं पीसने के बजाए अब चक्की से आटा मंगाया जाने लगा है। लोग अब सूर्य देव की पूजा भी अपने कम्फर्ट जोन में रह कर करना चाहते हैं। एक दूसरे के प्रति सहयोग की भावना भी लुप्त हो गई। पहले लोग स्वत: ही मदद के लिए तत्पर रहते थे। आस-पड़ोस से महिलाएं भी आ जाती थीं व्रतियों के घर। तब वहां न कोई अमीर होता था न गरीब। सूप में भले ही प्रसाद की मात्रा कम हो या अधिक या फिर गुणवत्ता में फर्क हो। मगर किसी का किसी से कोई भेदभाव नहीं दिखता था। मगर अब दिखता है।
जाने कहां गुम हो गई वह मिठास
हम किसी तरह छठी मैया की पूजा तो कर रहे हैं, मगर परस्पर प्रेम, सहभागिता और प्यार के साथ ठेकुए की वो खुशबू भी बिला गई। हम सोने के सूप में सूर्य देव को अर्ध्य तो देना चाहते हैं पर घाट पर जाना गवारा नहीं। भीड़ में पानी में खड़ा होना भी पसंद नहीं। सुविधा अनुसार हौद बना कर या टब लाकर अर्ध्य देना चाहते हैं। कई लोग सामूहिकता से दूर होकर इस पर्व को मना रहे हैं। इस बार मैंने मां से पूछा, आखिर तुम कब छठ कब करोगी। उसका जवाब था, हम से न हो सकेगा बेटा। इतना नियम, शुद्धता और तैयारी। कैसे होगा। सचमुच महानगरों के परिवार कितने पीछे छूट गए हैं इस परंपरा से, इस धरोहर से। हम भी उनमें से ही हैं। छठी मैया सहाय हों। हम सब को शक्ति दें। इस पर्व ने ही हमें सिखाया कि उगते सूरज को ही नहीं डूबते सूरज को भी उतना ही सम्मान देना चाहिए। मगर कितना अमल कर पाते हैं

यह संदेश है स्वच्छता का । नदियों के संरक्षण का । अस्ताचल सूर्य को नमन करने का

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