प्रीति कर्ण II
भोर गहमागहमी से भरी गुंजाइश ही नहीं रखती थी कि एक बार सलीके से दर्पण में झांकने की फुर्सत तक मिले।
जैसे तैसे अपने को सम्हाल कर सूरज की घंटी बजने के पूर्व ही बिछावन की सलवटों से मुक्त कर लेती थी वह अपने अलसाये मन को, चाहना भले ही रहती थी कि रात भर की उमस से घमाये देह को झिहिर झिहिर बहती पुरवाइयों का संग करवट पछोड़ता रहे कुछ देर तक।
आराम शब्द तनिक विलासी लगता था उसे क्योंकि कभी देखी नहीं थी उसने ऐसी दुनियां जिसमें सिर का भारीपन अथवा माहवारी की पीड़ा से व्यथित होने पर भी गृहकाज से छुटकारा दिलाने की किसी ने कोई झूठी कोशिश ही कभी की हो। सब सामान्य बातें हैं ऐसे ही चलता है जीवन और ये सब स्त्री जनित रोग हैं जिनको सहने की आदत होनी चाहिए ऐसा माँ चाची हमेशा कहा करती थीं नीलमणि से, क्योंकि उन्होंने भी वही सीख विरासत से ली थी।
सबके दुख में दिन रात एक कर देने वाली सारे काज धाज निपटाकर सुच्चे सरसों के तेल से मालिश करने बैठती तो बीमार के अंग अंग से दर्द को दुह कर विलीन कर देती थी चाहे अपने हाथ की नसें क्यों न अकड़ जाती रही हों।
संस्कार की ऐसी लेप बचपन से चढाई जाती है जिसमें बस त्याग तपस्या ही सफल गृहस्थी का आधार है। कछुए की भांति सारी पृथ्वी का भार पीठ पर लादे रहना है बिना हिले डुले। वास्तव में जिस दिन असह्य भार से संतुलन बिगड़ने की स्थिति होती है यह अडोल धरती कांप उठती है…..
उनदिनों ऐसी ही रीत थी ऐसा ही दौर था स्त्रियाँ घर सम्हालती थीं और पुरुष बाहर के काज मसलन खेती बारी हाट बाजार व्यवसाय चाकरी आदि। घर छोटे आवश्यकताओं का पसरा जंजाल कम संसाधन सीमित और विलासिता का नामोनिशान नहीं। फाॅर्मल कैजुअल वियर जैसा कोई शब्द सभ्यता की खेत में नहीं उगा था। शादी ब्याह समारोह आदि में भी लोग बाग साबुन से धो कर चकचकाए वही पुरानी कमीज धोती पहन कर साज सज्जा की भरपाई कर लेते थे। अधिक से अधिक एक अंगरखा शान शौकत बढ़ाने के लिए पर्याप्त हुआ करता था। स्त्रियों को भी अधिक दुनियावी रंग रोगन की कोई खबर नहीं थी अथवा उन प्रसाधनों का ईजाद ही नहीं हुआ था उस वक्त। भोर से दोपहर तक जलपान कलेवा की विधिवत व्यवस्था में लगी सिल बट्टे से मसाला पीसती कुएं से पानी भरकर लातीं और व्यंजन की विशिष्टता विभिन्नता में स्वाद की नवीनता बनाये रखने की भरपूर कोशिश में लगी रहतीं।
इसे किसी भी तरह विवशता अथवा बोझ नहीं मानती थीं नीलमणि अथवा उसके समय की समकक्ष औरतें।
प्रेम की एक अलग परिभाषा त्याग का अद्भुत उदाहरण बनी उन औरतों ने अपने से अधिक औरों के सुख सुविधाओं का फलदार वृक्ष की भांति खयाल रखा। उस समय की तुलना आज के परिप्रेक्ष्य में करते हुए उन्हें लाचार अथवा दुखी मानना उचित नहीं।
तीज त्योहार की निष्ठा में अपनी खुशी ढूंढने वाली औरतों के समय में शिक्षा दीक्षा का इतना विकास नहीं हुआ था कि उन्हें इससे वंचित रखा गया। पुरुषों को भी पढ़ने लिखने का सौभाग्य बड़ी मुश्किल से मिलता था। ऐसे में
बंधनों से बंधी उन औरतों के हृदय में पति पुत्रों और स्वजनों हेतु केवल अनुराग ही संचित था।
अपने समय की नीलमणि जैसी स्त्रियों ने हमेशा सहर्ष स्वीकारा ” मैं बंदिनी पिया की”!
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण अभिव्यक्ति.