(राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के जीवन पर आधारित जीवनीपरक उपन्यास )
राजेश्वर वशिष्ठ II
लेखिका: रजनी गुप्त
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
हिंदी में जीवनीपरक उपन्यासों की समृद्ध परम्परा है। सबसे पहले रांगेय राघव ने भारतेन्दु हरिश्चंद्र के जीवन पर 1954 में ‘भारती का सपूत’ नाम से जीवनीपरक उपन्यास लिखा था। उस उपन्यास की लोकप्रियता देखते हुए कालांतर में उन्होंने तुलसी, कबीर, बिहारी, गोरखनाथ, बुद्ध और कृष्ण के जीवन पर भी जीवनीपरक उपन्यास लिखे। इसी क्रम को आगे ले जाते हुए अमृतलाल नागर ने गोस्वामी तुलसीदास के जीवन पर ‘मानस का हंस’ और भक्तकवि सूरदास के जीवन पर ‘खंजन नयन’ लिखा तो खूब चर्चा हुई। स्वामी विवेकानंद के जीवन पर नरेंद्र कोहली का जीवनीपरक उपन्यास ‘तोड़ो कारा तोड़ो’ भी पाठकों के बीच लोकप्रिय हुआ।इसी तरह से शरतचंद्र पर विष्णु प्रभाकर, निराला पर रामविलास शर्मा और हज़ारी प्रसाद द्विवेदी पर विश्वनाथ त्रिपाठी ने पठनीय जीवनीपरक उपन्यास लिखे हैं।
इन सभी उपन्यासकारों के अपने चयनित साहित्यकारों के साथ वैचारिक, भावनात्मक या परिचयात्मक संबंध रहे होंगे।ऐसा होना भी चाहिए ताकि लेखक उस साहित्यकार के जीवन और कृतित्व के विषय में अधिक से अधिक प्रकाशित सामग्री खंगाल कर, परिवारजनों और मित्रों के अनुभवों को कलमबद्ध कर तथा अपने काल्पनिक सृजन द्वारा एक रोचक कथाक्रम तैयार कर सके। ये जीवनीपरक उपन्यास लेखक द्वारा आत्मकथा न लिखने के एवज में अधिक रोचक, सूचनापरक और आलोचनात्मक हो सकते हैं, यदि लेखक ‘महान विभूति’ के प्रति भक्ति-भाव छोड़ कर तटस्थ रह सके। इन उपन्यासों में उस विभूति के साहित्यिक अवदानों के बीच से भी उसके व्यक्तित्व के अनेक अपरिचित अक्स बटोरे या सृजित किए गए होते हैं, जो आत्मकथा में असंभव रहता है।
मेरे सामने रजनी गुप्त का राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त पर सद्य प्रकाशित उपन्यास – कि याद जो करें सभी – है, जिसे हाल ही में पढ़ कर पूरा किया है। इस उपन्यास पर चर्चा करने से पहले यह स्वीकार करना चाहूँगा कि राष्ट्रकवि के प्रति अथाह सम्मान रखते हुए भी, मैंने उन्हें कभी कवि-रूप में नहीं पढ़ा। उतना ही पढ़ा जितना पाठ्य-पुस्तकों में होने के कारण पढ़ना अनिवार्य था। स्वाध्याय के क्रम में भारतेंदु, प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी, दिनकर के बाद अज्ञेय और मुक्तिबोध को पढ़ा लेकिन मैथिलीशरण गुप्त को उनके अति आदर्शवाद और इतिवृत्तात्मक शैली की प्रसिद्धि के कारण पढ़ना आवश्यक नहीं समझा।
लगभग पाँच वर्ष पहले जब रजनी गुप्त से राष्ट्रकवि के विषय में चर्चा हुई तो मैंने बिना लाग-लपेट के अपनीराय जाहिर की थी। उस दिन रजनी ने मुझे बताया था कि वह मूल रूप से चिरगाँव की रहने वाली हैं और दद्दा के परिवार को जानती हैं। उसने राष्ट्रकवि को गम्भीरता से पढ़ा भी है और उनके साहित्य के विषय में उसकी राय, मेरी राय से अलग है। उन दिनों वह कई लोगों से विमर्श कर रही थी कि वह दद्दा पर एक जीवनीपरक उपन्यास लिखना चाहती है। उसने कहा कि कई लोगों पर महानता थोप कर उन्हें दूर से प्रणाम करने योग्य बना दिया जाता है, कुछ आलोचकों ने दद्दा के साथ ऐसा ही किया है। यही टीस उसे इस उपन्यास के लेखन के लिए प्रेरित कर रही है। फिर कुछ समय बाद पता चला कि रजनी पूरी तन्मयता के साथ इस प्रॉजक्ट पर जुट गई है, उसने सैंकड़ों पत्र-पत्रिकाओं से राष्ट्रकवि के साहित्य, जीवन और सामाजिकता पर केंद्रित लेखों के संदर्भों को नोट कर लिया था। वह लम्बे समय तक चिरगाँव के अपने घर में जाकर रही – दद्दा के परिवार में जीवित उनकी पुत्र वधुशांति गुप्त से कई बार मिली तथा उनके जीवन से जुड़े कई सारे प्रसंग जाने। मुहल्ले के कई बुज़ुर्ग लोगों से मिल कर भी राष्ट्रकवि के विषय में जानकारी जुटाई। फिर लेखन का सिलसिला शुरु हुआ और रजनी ने बहुत धैर्य, सतर्कता और ईमानदारी से इस उपन्यास को पूरा किया, जिसकी हम सबको प्रतीक्षा थी।
उपन्यास मैथिलीशरण गुप्त के प्रारम्भिक जीवन के विषय महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रस्तुत करताहै जिनकी परिणती स्वाभाविक रूप से एक राष्ट्रचेता कवि के रूप में होती है। उन्हें कविता का संस्कार अपने पिता श्री रामचरण गुप्त से मिला और पारिवारिक मित्र मुंशी अजमेरी ने उसे मार्गदर्शन देकर खूब निखारा। उन्होंने बाल्यकाल में ही – अमरकोश, लघुसिद्धांत कौमुदी, रामचरितमानस, अध्यात्म रामायण, रघुवंश आदिका अध्ययन कर लिया था। श्रीराम का चरित्र उनके मन में ऐसा बसा कि जीवन भर वह उनके आदर्शों के साथ उन्हीं की आराधना करते रहे।उनके लेखन कक्ष में श्रीराम, उनके पिता और गाँधी जी के चित्र लगे रहते थे। उनके आर्थिक रूप से समृद्ध परिवार में उनके छोटे भाई सियारामशरण भी उनकी देखा-देखी कविकर्म में सम्मिलित हो गए। मैथिलीशरण बचपन से ही एकांत में बैठ कर स्लेट पर कविताएँ लिखते थे और मुंशी अजमेरी से चर्चा और संशोधनों के बाद उन्हें अंतिम रूप देकर नोटबुक में लिखते थे। यह वह समय था जब उन्होंने अंग्रेज़ों की भारतीय संस्कृति विरोधी नीतियों और मानसिकता का बहुकोणीय अनुभव किया।
उन्हें प्राईमरी शिक्षा से आगे अध्ययन के लिए चिरगाँव से झाँसी भेजा गया किंतु वहाँ उनका मन नहीं लगा। एक पत्र में उन्होंने लिखा – ‘नन्ना, अब इस पास-फेल की शिक्षा से जी ऊब गया है। घर पर रह कर ही संस्कृत, बांग्ला, उर्दू, फारसी आदि का अध्ययन-मनन करने की उत्कट अभिलाषा है। पिताजी की तरह कविताएँ रचने के लिए जी अकुलाता रहता है।‘ उनके मन में देश और अपनी संस्कृति के प्रति चिंतन-मनन की गहन शुरुआत हो चुकी थी। आज़ादी के आंदोलन से जुड़े समाचार उन्हें मिलने लगे थे और वे अंग्रेज़ों के विरोध से लेकर सामाजिक ऊँच-नीच, छुआछूत, जातिवाद और साम्प्रदायिकता जैसे कठिन विषयों को समझने लगे थे। वह गाँधी जी और विनोबा भावे के प्रशंसक थे। उनके भीतर मानवतावादी और राष्ट्रवादी दृष्टि का अविर्भाव हो गया था और यह चिंतन उनकी कविताओं में झाँकने लगा था। उन्होंने किशोरावस्था में आयुर्वेद का अध्ययन भी किया और वह प्राचीन भारतीय मनीषा का संरक्षण करने को लालायित रहने लगे।
बाल्यावस्था से ही उनकी कविताएँ महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं में स्थान पाने लगी थीं। उनकी पहली रचना 1906 में प्रकाशित हुई। ‘रंग में भंग’ और ‘जयद्रथ वध’ जैसे खंड काव्य तो ‘भारत-भारती’ से पहले छप कर धूम मचा चुके थे।‘ उन्होंने माइकेल मधुसूदन रचित ‘मेघनाद वध’ का अनुवाद करते समय लिखा – ‘सच तो यह है कि तुक एक कृत्रिमता है। जहाँ तक कानों का संबंध है, वह भले ही अच्छा कवित्त मालूम पड़े किंतु हृदय को हिला देने वाली वस्तु दूसरी ही होती है। जो अतुकांत को बेतुकी कहकर उसकी हँसी उड़ाते हैं, उन्हें याद रखना चाहिए कि महाकवि वाल्मीकि, कालिदास व व्यास ने तुकबंदी नहीं की थी। जब वे शब्दालंकारों की ओर झुक पड़े, तब से कविता में कृत्रिमता और आडम्बर का समावेश हुआ।‘ इसे उनकी कविताओं के शिल्प को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण सूत्र के रूप में ग्रहण किया जा सकता है।
मुझे लगता है – जब शोध और जीवनी, भाषा और शिल्प के लालित्य के साथ कल्पना के आसमान में उड़ते हुए उपन्यास का रूप लेते हैं तो उसे पढ़ कर पाठक के मन में विशिष्ट आनंद की अनुभूति होती है। यह उपन्यास ऐसे अनेक उद्धरणों से भरा पड़ा है जिनके माध्यम से दद्दा के जीवन और उनकी प्राम्भिक विचार दृष्टि के विषय में विस्तार से समझा जा सकता है। इस उपन्यास को पढ़ते हुए बार-बार यह अनुभूति होती है कि हमने अब तक एक विशिष्ट कवि को गहन अध्ययन का विषय क्यों नहीं बनाया। क्या भारतीयता और राष्ट्रवाद को नकारने की प्रवृत्ति भारत की स्वतंत्रता के साथ ही आरम्भ हो गई थी? क्या उनके प्रशंसक पंडित नेहरु की प्रगतिशीलता, कलावादी दक्षिणपंथ को भी उदारता से स्वीकार करती थी? ऐसा न होता तो मैथिलीशरण गुप्त और रामधारी सिंह दिनकर, राज्यसभा तक कैसे पहुँचते? इन प्रश्नों के उत्तर भी खोजने पर इस उपन्यास में मिल सकते हैं।
15 वर्ष की किशोरावस्था में उनका पहला विवाह गुप्त वंश के वैभव की पराकाष्ठा थी। पत्नी उनसे 6 वर्ष छोटी यानी 9 वर्ष की थी तथापि विवाह के कुछ वर्ष बाद ही उनकी बीमारी ने वैवाहिक आनंद को समाप्त कर दिया। प्रसूतावस्था में वैद्यों के इलाज से कोई लाभ नहीं हुआ और पत्नी की मृत्यु हो गई। फिर एक अन्य विवाह हुआ और दूसरी पत्नी भी चल बसी – इस बीच उत्पन्न हुए आठ पुत्र भी काल के गाल में समा गए। तीसरी पत्नी से उत्पन्न नवें पुत्र उर्मिलाचरण दीर्घायु तो हुए लेकिन वंश की परम्परा और सम्मान को सहेजने योग्य सिद्ध न हुए। यह उपन्यासबहुत सारे प्रसंगों और घटनाओं के माध्यम से बताता है कि मैथिलीशरण गुप्त का निजी जीवन दुखों की एक लम्बी शृंखला से आबद्ध रहा।
इस जीवनीपरक उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता है – रजनी की भावनात्मक तटस्थता। पारिवारिक नैकट्य होने के कारण यह बड़ा मुश्किल था कि वह उन पारिवारिक बातों को भी साझा करें जो एक महान राष्ट्रवादी, समाजचेता कवि की स्थापित छवि के ठीक विपरीत जाती हों। उन्होंने भाईयों को लेखन और व्यापार में आगे बढ़ाया लेकिन वस्तुस्थिति कुछ अलग भी कहती है – सियारामशरण कवि प्रतिभा सम्पन्न होते हुए भी जीवन भर दद्दा के अनुज ही बने रहे संभवतः उन्होंने उन्हें आगे बढ़ाने का प्रयास नहीं किया गया। अपने पुत्र उर्मिलाचरणको योग्य बनाने के लिए उन्होंने हर संभव कदम उठाया किंतु कुछ न कर पाए। एक प्रतिभाशाली कवियित्री शांतिगुप्त को अपनी पुत्रवधु बना लाए किंतु उन्हें साहित्य या सामाजिक क्षेत्र में पनपने का कोई अवसर नहीं दिया। स्त्रियों की दशा और दिशा सिर्फ काव्य में ही सुधरती रही, अपने घर में नहीं।
कवि रूप में उनकी प्रसिद्धि बहुत जल्दी समूचे भारतवर्ष में हो गई थी। वह आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को अपना गुरु मानते थे जो उस समय ‘सरस्वती’ पत्रिका का संपादन करते थे। अपने जीवनकाल में दद्दा के संबंध सभी समकालीन चर्चित कवियों और लेखकों से रहे। गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, वृन्दावन लाल वर्मा तथा महादेवी वर्मा से उनके आत्मीय संबंध रहे। कविगुरु रवींद्रनाथ की प्रेरणा से उन्होंने रामायण और महाभारत के उपेक्षित पात्रों पर खंड-काव्य लिखे। महादेवी तो उन्हें भाई मानकर राखी बाँधती रहीं। इसी तरह से अज्ञेय ने उनके छापाखाने को देखने का भी अद्भुत वर्णन किया था जिसकी चर्चा इस उपन्यास में है।
‘भारत-भारती’ ने उन्हें इतनी प्रसिद्धि दे दी थी कि रोज़ बहुत सारे पत्र आया करते थे। गाँधी जी जैसे प्रमुख नेता ने उनकी पुस्तक को पढ़ा था और जवाहर लाल भी उन्हें जानने लगे थे। ‘साकेत’ को लेकर तो गाँधी जी से उनका लम्बा पत्राचार हुआ था। स्वतंत्रता आंदोलन के समय उनका सम्पर्क सभी बड़े कांग्रेसी नेताओं के साथ था। उनकी गतिविधियाँ शासन की दृष्टि में आगईंथीं और इसके फलस्वरूप 1941 में उन्हें जेल जाना पड़ा। जब उन्हें जेल ले जाया जारहा था तो सड़कों पर – ‘कविवर मैथिलीशरण ज़िंदाबाद और महात्मा गांधी ज़िंदाबाद के नारे लग रहे थे।‘ 1952 में जब एक दिन वह राय कृष्णदास के घर बैठे थे तो उन्हें नेहरु जी का संदेश मिला कि उनकी बहन महादेवी के आग्रह पर उन्हें राज्यसभा में आ जाना चाहिए। थोड़ी ना-नुकर के बाद दद्दा दिल्ली चले गए और उन्होंने 12 वर्षों तक राज्यसभा सदस्य होने का सुख भोगा। उन दिनों उनके दिल्ली स्थित बंगले पर कवियों, लेखकों की संगत जमती रहती थी। राज्यसभा का सदस्य न रहने पर उन्हें चिरगाँव लौटना पड़ा जहाँ उनका परिवार विघटन के कगार पर था।
यह वह समय था जब हिंदी साहित्य में आलोचकों द्वारा एक नई धारा और तेवर के लोगों को आगे लाया जा रहा था। आलोचकों के स्वर प्रगतिशीलता के चरम पर पहुँच गए थे – उनका लेखन अब हिंदी की धरोहर बन कर रह गया था। इसी काल में दद्दा बीमार हुए और परलोक सिधार गए। बहुत सारे श्रद्धांजलि कार्यक्रम हुए पर शायद ही किसी ने ‘भारत-भारती’ को निकाल कर पढ़ा। यही सारा जीवंत लेखा जोखा 350 पृष्ठों के इस जीवनी परक उपन्यास में सलीके के साथ बिखरा है जिसमें रजनी के स्वेद-कण मोतियों से जड़े हैं।
इस पुस्तक का प्रकाशन रज़ा फ़ाउंडेशन के सहयोग से वाणी प्रकाशन ने किया है जो साधुवाद के पात्र हैं।हर साहित्यजीवी को यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए।
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