पुस्तक समीक्षा

इन गलियों में आना तुम दोबारा

संजय स्वतंत्र II

 प्रेम में डूबी स्त्री ने कहा, तुम बादल बन जाओ। इस पर पुरुष ने कहा, ठीक है। और फिर हर तरफ बारिश होने लगी। इसी के साथ वह अपनी प्रिया की पलकों पर आंसू बन कर हमेशा के लिए ठहर गया। अब स्त्री की बारी थी। वह पुरुष की हथेलियों पर हरसिंगार बन कर उतर आई। प्रेमी ने उसे हमेशा के लिए सहेज लिया। अपने दिल में। अपने रचनाकर्म में। यही तो प्रेम है। पावन और निराकार। यहां कवि मन धरती से लेकर आकाशगंगा की यात्रा कर लेता है। यह अलौकिक अहसास है। सच्चे प्रेम में आप ईश्वर की प्रार्थना भी सुन सकते हैं। इस प्रेम मे कोई एक दूसरे से कुछ मांगता नहीं, सर्वस्व न्योछावर कर देता है।

 प्रेम की भावना कालखंड से परे होती है। इसमें सौ साल पहले भी प्यार था और हजार साल करते रहने की भी तमन्ना है। तभी तो कोई कवयित्री रच देती है- उस एक रूहानी पल में/एक उम्र जी जाती हूं मैं। … प्रेम में एक गूढ़ता  है। यहां मौन में भी अभिव्यक्ति है। बिना कुछ कहे एक दूसरे के भाव और पीड़ा को समझ लेना भी तो प्रेम ही है न। इसलिए ढाई आखर के इस शब्द को बूझ लेने वाले को ज्ञानी माना गया है।

  सच ही है कि प्रेम की गली में जो गया, वहां से वह लौटा नहीं। वहीं का होकर रह गया। वैसे भी इसका रास्ता सीधा है। यहां छोटे दिल वालों के लिए जगह नहीं। यहां कोई चतुराई दिखाने की भी जरूरत नहीं। रीति काल के सर्वाधिक चर्चित कवियों में से एक घनानंद प्रेम के मार्ग को अत्यंत सरल बताते हुए लिखते हैं- अति सूधो सनेह को मारग है, जहां नेकू सयानप बाँक नहीं। … तो इस प्रेम की गली में वक्रता नहीं है। संकरापन नहीं है। यहां सयाना बनने की आवश्यकता नहीं।

  पिछले दिनों लेखिका एवं कवयित्री सुमन सिंह के संपादन में आए प्रेम काव्य संग्रह ‘प्रेम गलिन से’ को पढ़ते हुए सचमुच यही लगा कि इस प्रेम गली तो आ गए मगर अब निकलें कैसे? यहां नायक के विरह में पिंजर हो गई नायिका की आंखें आपको बेचैन कर देती हैं। यह आपको अपने संसार में लौटने नहीं देतीं। सुमन जी ने अपनी बात में प्रेम की भावना की बड़ी सुंदर व्याख्या की है- प्रेम ने ही तो मन के अविश्वास को पराजित किया है। बिना मिले, बिना देखे, बिना जाने कोई आपके साथ हो लेता है ताउम्र। शायद इसीलिए  प्रेम की भावना ब्रह्मांड के विस्तार से भी बड़ी है। इस भावना के आगे सागर की गहराई भी कम लगती है। कोई कवयित्री अगर बादलों के पार जाकर इंद्रधनुष रचती है या सागर किनारे बैठ कर चांद को छूती है तो यह हौसला उसे उसका प्रेम के प्रति विश्वास ही देता है।

  काव्य संग्रह ‘प्रेम गलिन से’ हर दौर के कवियों को यथोचित स्थान मिला है। यह संग्रह प्रेम कविताओं का नायाब गुलदस्ता है। यहां साठ और सत्तर के दशक में पैदा हुए कवि हैं तो नब्बे के दशक में जन्मी कवयित्रियां भी। सुमन जी ने सभी को एक धागे में पिरो दिया है। संग्रह की पहली कविता वरिष्ठ कवि राजेश्वर वशिष्ठ की है-

प्रेम खनकता है किसी सिक्के की तरह
मैं उसे आत्मा की चोर जेब में रखता हूं
मैं नहीं चाहता लोग उस सिक्के पर
तुम्हारी तस्वीर देखें।
विश्वास करो मैं तुम्हें प्रेम करता हूं
जिंदगी और मौत की तरह
मैं इतिहास का कोई मर्यादा पुरुष नहीं हूं।

राजेश्वर जी ने आवारा बहती हवा पर प्रेम पत्र लिखा। नतीजा ये कि हवा के कदम लड़खड़ा गए। और उसने अपनी दिशा बदल ली। अद्भुत कविवर।

  मौन की भी अपनी अभिव्यक्ति होती है प्रेम में। तब आप प्रेममय होते हैं। संग्रह की कवयित्री रचना श्रीवास्तव जी लिखती हैं-

लोग कहते हैं
प्यार की आवाज नहीं होती
पर मैंने तुम्हारी आंखों को
कई बार बोलते सुना है। 

     इसी तरह संग्रह की कवयित्री पूनम सूद ने प्रेम में पड़ी स्त्री की मौन व्याख्या इस तरह की है- प्रेम में पड़ी हर स्त्री/खत नहीं लिखती/ न ही कह पाती है- आइ लव यू/ उसे विश्वास है/समझ लेगा पुरुष/उसके मूक प्रेम की भाषा।  …मगर हकीकत ये है कि प्रेम के इस अहसास की कोई लिपि नहीं है। इसलिए पुरुष इतना ही समझ पाता है जितना लिपिबद्ध होता है।  अगर मुहब्बत है तो मुक्त कर दीजिए उसे बंधन से।  प्यार बांधना नहीं, मुक्त करना सिखाता है। इसके लिए सींचना भी पड़ता है उसे दरख्त बनाने के लिए। डॉ. बुशरा खातून लिखती हैं- संग-ए-मर-मर से दबी जमीन में कैसे शादाब रह सकता है/मुहब्बत का दरख्त/उसे तो चाहिए कच्ची मिट्टी/खुला आसमान/मुट्ठी भर धूप/ और बेलौस जज्बों की फराबानी।

प्रेम में किसी को भी अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए। जहां अपेक्षाएं होती हैं वहां प्रेम नहीं होता। इस संदर्भ में डॉ. संगीता पांडेय की पंक्तियां बरबस ध्यान खींच लेती हैं-अपेक्षाएं जन्मती हैं/अंतत: मिट जाती है/अजन्मा होता है प्रेम/तुमने ठीक सुना है/ प्रेम शाश्वत होता है।

 तो अपेक्षाओं से जब कोई मुक्त हो जाता है तो हृदय के किसी कोने में वह बचा रह जाता है। चर्चित कवयित्री सांत्वना श्रीकांत ने उस भाव को बखूबी व्यक्त किया है-जब लौट जाते हो/तो आखिर में थोड़ा/बच जाते हो मुझमें/मेरी आंखों की चमक/और नरम हथेलियों के गुलाबीपन में। ये साकार हुआ प्रेम नहीं। ये निराकार है। तभी तो वे लिखती हैं-मैं तुम्हें शब्दों में/ नहीं समेट सकती/एक आकार ले चुके हो तुम/उस ब्रह्म का/जिसे मैं हमेशा पाना चाहती हूं। …तुम्हारा होना ही प्रेम की/ निष्कलंक परिभाषा है/जिसे गढ़ा है   तुमने/ जिसे जीती हूं/ मैं खुद में हर पल।  तो यही है निराकार प्रेम।

संग्रह में बिम्मी कुंवर सिंह और आशीष पी मिश्रा के साथ गति उपाध्याय की कविताएं चौंकाती हैं-एक दिन झूठे रिश्तों के लिए मार दी जाएंगी सारी प्रेमिकाएं और/ अंत में बचेगा एक उदास घर/सिसकती औरत और बेपरवाह जीवनविहीन पति…/दुनिया की सारी शादियां इसी तरह बचा ली जाएंगी।

काव्य संग्रह ‘प्रेम गलिन से’  में कई युवा और नवोदित कवियों को जगह दी गई हैं। कई तो नव अंकुर हैं। उन्हें कविता के भावों को अभी गढ़ना सीखना है। संग्रह में प्रूफरीडिंग की गलतियां थोड़ी खटकती है। अलबत्ता आवरण मिठाई लाल ने बनाया है और यह आकर्षक है। छपाई अच्छी है। कोई 294 पेज के इस काव्य संग्रह का मूल्य 350 रुपए है। प्रकाशित किया है सर्व भाषा ट्रस्ट ने। 

About the author

संजय स्वतंत्र

बिहार के बाढ़ जिले में जन्मे और बालपन से दिल्ली में पले-बढ़े संजय स्वतंत्र ने दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज से पढ़ाई की है। स्नातकोत्तर की शिक्षा पूरी करने के बाद एमफिल को अधबीच में छोड़ वे इंडियन एक्सप्रेस समूह में शामिल हुए। समूह के प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक जनसत्ता में प्रशिक्षु के तौर पर नौकरी शुरू की। करीब तीन दशक से हिंदी पत्रकारिता करते हुए हुए उन्होंने मीडिया को बाजार बनते और देश तथा दिल्ली की राजनीति एवं समाज को बदलते हुए देखा है। खबरों से सरोकार रखने वाले संजय अपने लेखन में सामाजिक संवेदना को बचाने और स्त्री चेतना को स्वर देने के लिए जाने जाते हैं। उनकी चर्चित द लास्ट कोच शृंखला जिंदगी का कैनवास हैं। इसके माध्यम से वे न केवल आम आदमी की जिंदगी को टटोलते हैं बल्कि मानवीय संबंधों में आ रहे बदलावों को अपनी कहानियों में बखूबी प्रस्तुत करते हैं। संजय की रचनाएं देश के सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।

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