सुजाता राज्ञी II
कभी – कभी देशकाल की परिस्थितियाँ विवश कर देती है कि अपने इतिहास को फिर से पढ़ा जाए और वर्तमान पीढ़ी को भी उससे परिचित कराया जाए । अपने पूर्वजों के बारे में जानने की मनुष्य में सहज जिज्ञासा होती है । गुजरे हुए कल की कहानी हमें बताती है कि हमारे पूर्वजों ने जीवन के संघर्ष को कैसे जिया था, किन परिस्थितियों से गुजर कर उन्होने जीवन के ऊंचे आदर्श स्थापित किए थे । गौरवशाली इतिहास हमारे आत्मविश्वास को तो बढ़ाता ही है साथ ही हमें जिम्मेदारी का भी एहसास कराता है कि हमें अपने पूर्वजों से विरासत में मिले यश को बनाए रखना है और उसमें कीर्ति के नए अध्याय भी जोड़ने हैं । आज की युवा पीढ़ी को भी बाबा कामिल बुल्के को जानने की आवश्यकता है कि कैसे एक ईसाई मिशनरी का संत तुलसी के बहाने भारत आया और भारत का ही होकर रह गया । आज राजनीतिक महत्वाकांक्षा के कारण कई बार हमें अपनी जिस विरासत पर गर्व होना चाहिए हम उस पर भी कीचड़ उछालने से बाज नहीं आते, फिर चाहे वह देश की भाषा हो या भारतीय संस्कृति के आदर्श पुरुष ।
हॉलैण्ड में बाबा बुल्के के एक मित्र थे डॉक्टर होयकास, जो संस्कृत और इंडोनेशियाई भाषाओं के विद्वान थे । हॉलैण्ड में ही एक शाम को टहलते हुए डॉक्टर होयकास ने देखा कि एक इंडोनेशियाई मौलाना ने अपने बगल में पवित्र कुरान रखी है और वे इंडोनेशियाई रामायण पढ़ रहे हैं । उन्होंने मौलाना से आश्चर्य के साथ पूछा कि आप तो इस्लाम को मानते हैं फिर रामायण क्यों पढ़ रहे हैं ? मौलाना ने उत्तर में सिर्फ इतना कहा कि ‘और भी अच्छा इंसान बनने के लिए।’ 19 वीं शताब्दी के बाद के हिन्दी साहित्य का इतिहास और रामचरितमानस की चर्चा, बिना बाबा कामिल बुल्के के अधूरी है ।
बाबा बुल्के का मठ मनरेसा -हाउस मेरे स्कूल और घर के बीच में पड़ता है । गर्मियों के दिनों में जब स्कूल से दोपहर को छुट्टी हो जाती थी तब घर वापस लौटते समय दोपहर को जब कभी मेरे पिता (डॉ. श्रवण कु. गोस्वामी) मनरेसा-हाउस जाते तब बाबा कामिल बुल्के से मिलने का अवसर मिलता था । वे बातचीत करने के लिए पुस्तकालय के बरामदे में रखी बेंत की बनी अपनी आरामकुर्सी में आकर बैठते । अंदर के कमरे से वे जैसे ही बाहर आते, लगता कोई धवल प्रकाश-पुंज प्रकट हो गया हो । पादरियों के झक सफेद परिधान में गौरवर्ण, ऊँचाकद, धवल दाढ़ी और गम्भीर नीली आँखें, हमें देखते ही खुश होकर कहते ”अरे” । एक विदेशी को देखते ही मैं चहककर उन्हे नमस्ते करने के बदले ‘गुड आफ्टर नून फादर’ कहती । मैं नादान अपने पिता के द्वारा सिखाए गए शिष्टाचार को भूलकर उन्हे अपने अंगरेजी तौर -तरीके के ज्ञान से प्रभावित करने की बेवकूफी कर बैठती । अपने स्कूल में हमने यही सीखा था । तभी मेरे पिता और बाबा कामिल बुल्के की आँखे मिलती और एक दूसरे से कुछ कहती । उस संवाद को मैं न सुन सकती थी और न समझ पाती थी । बस इतना समझ में आता था कि कुछ गड़बड़ हो गई है । वास्तव में, मैं यानि पाँच छः साल की बच्ची उस शिक्षा व्यवस्था का नतीजा थी जिसका तानाबाना मैकाले ने बुना था तथा जिसे स्वतंत्र भारत में हमारे पूर्वजों ने बड़े प्यार से पाला था । मन मस्तिष्क में यह छपा था कि गोरे लोगों से अंगरेजी में बात करने पर वो खुश होते हैं । मुझे क्या मालूम था कि इस गोरी काया की आत्मा भारत में जन्मे किसी भारतीय से भी ज्यादा भारतीय है ।
खैर, मुझे तो उस पल का इंतजार होता, जब वे जेब से निकाल कर टॉफियाँ मेरे हाथ में रखते और प्यार से मेरे सर पर हाथ फेरते । तब वे मुझे साक्षात सांता क्लॉज़ लगते थे । मन ही मन मैं यही मोलतोल करती कि ये वाले सांता, क्रिसमस वाले सांता से दुबले हैं । लेकिन मेरे लिए दुबले वाले सांता ही सच्चे थे क्योंकि टॉफियाँ तो यही देते हैं, मोटे वाले सांता तो कभी आए ही नहीं । बच्चों को बस अपने मतलब से लेना – देना होता है अत: तब मेरा लक्ष्य भी वही टॉफियाँ ही थीं । लेकिन उनके व्यक्तित्व में न जाने कुछ तो था जो मुझे अपने स्वर्गीय पितामह की उपस्थिति का एहसास कराता था ।
नौकरी में आने के बाद मैंने जब भी कभी अंगरेजी में अभिवादन किया तो मुझे लगता मेरे सांता मुझे उन्ही व्यथित नीली आँखों से देख रहे हैं; मैं अपराधबोध से भर जाती । फिर धीरे धीरे मैंने ”नमस्ते” को ही हमेशा के लिए अपना अभिवादन बना लिया । 17 अगस्त 1982 को जब उनका निधन हुआ तब मिशनरी स्कूल होने के कारण मेरे स्कूल में शोक-सभा का आयोजन किया गया । उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को समझने के लिए मैं बहुत छोटी थी । उनकी मृत्यु की खबर सुनकर मैं अपने क्लास में पहुँच कर फूट फूटकर रोई । पूरा क्लास हतप्रभ था कि इसे क्या हुआ ! मुझे बस खोने का एहसास था क्या ? ये मैं नहीं बता सकती थी । शायद तब मुझे अपने सांता, अपने दादा जी को खोने का मिश्रित एहसास हुआ था ।
बाबा कमिल बुल्के का जन्म बेल्जियम में हुआ था । 21 वर्ष की आयु में उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया और जेसुइट हो गए । भारत आने से पहले उन्होंने बेल्जियम में ही कभी जर्मनी भाषा में अनुदित तुलसीदास की यह पंक्तियाँ पढ़ी थीं :
” धन्य जन्मु जगतीतल तासु । पिता ही प्रमोद रचित सुनि जासू ।
चारि परारथ करतल ताके । प्रिय पितु प्रान सम जाके ॥”
इन पंक्तियों का अर्थ है कि इस पृथ्वी पर उसका जन्म धन्य है जिसके चरित्र को सुनकर पिता को परमआनंद मिले । जिस व्यक्ति को माता -पिता प्राणों के सामान प्रिय हैं, चारों पदार्थ अर्थात धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष सदा उनके हाथ में रहते हैं । उन्हें यह आश्चर्य हुआ कि संतान और पिता के बीच ऐसा आदर्श संबंध, साहित्य में ऐसी उदात्त कल्पना, बेल्जियम साहित्य में तो क्या पूरे यूरोपीय साहित्य में उपलब्ध नहीं है । तब बाबा बुल्के तुलसीदास से परिचित नहीं थे । किंतु 1938 ई. में जब भारत आने के बाद उन्होंने सालभर तक हिन्दी का अध्ययन किया और उन्होंने इसी दौरान तुलसीदास की रचना रामचरितमानस एवं विनयपत्रिका पढ़ी, तब उन्हे मालूम हुआ कि जिन पंक्तियों को जर्मनी भाषा में पढ़कर वे भावुक हो गए थे वे तुलसीदास की लिखी पंक्तियाँ हैं । बाद में स्वयं बाबा बुल्के ने लिखा है कि ”जिस समय मैं यूरोप में पहली बार ये पंक्तियाँ पढ़कर द्रविभूत हुआ था, उसी समय प्रभु ने मुझे बताना चाहा था कि तुम इन पंक्तियों के रचयिता के देश में जाकर उसी कवि के शब्दों में तुलसी प्रेमी जनता के सामने भगवत भक्ति का संदेश दोहराते रहोगे ।” शायद विधि के इसी विधान की अंत:प्रेरणा उन्हें भारत ले आई ।
रामकथा को समझने के लिए उन्होंने संस्कृत सीखा । भारत आने से पहले ही उन्हे अपनी मातृभाषा फ्लेमिश के अलावा लैटिन, जर्मनी, ग्रीक पर अच्छा खासा अधिकार प्राप्त था । कुशाग्र बुद्धि कामिल बुल्के ने केवल पांच सालों में न केवल हिंदी बल्कि यहां की सभी उत्तर भारतीय भाषाओं की जननी संस्कृत पर पूरा अधिकार प्राप्त कर लिया । उन्हें ब्रज, पाली, प्राकृत,अपभ्रंश का भी ज्ञान था । पेशे से इंजिनीयर बाबा गुमला (झारखण्ड) एक स्कूल में गणित पढ़ाते थे । उसी स्कूल में वे 13 -14 वर्ष के छात्रों की क्लास में हिन्दी सीखने के लिए पीछे की बेंच में बैठ जाया करते थे । हिन्दी का वैज्ञानिक अध्ययन करने के लिए उन्होंने संस्कृत पढ़ा और ज्ञान -पिपासा और ईसा -भक्ति में एक के बाद एक क्रम कुछ ऎसा बना कि तुलसी, वाल्मीकि , संस्कृत, हिन्दी के चक्कर में पड़कर बाबा बुल्के का मानस तुलसीमय हो गया । बहुभाषा ज्ञानी होने के कारण उन्हे चलता- फिरता शब्दकोश कहा जाने लगा ।
हिन्दी भाषा में हिन्दी विषय से संबंधित पहला शोध – प्रबंध (थीसिस) बाबा बुल्के द्वारा लिखा गया था । यह बड़ा आश्चर्यजनक तथ्य है कि बाबा बुल्के से पहले किसी भारतीय ने हिन्दी में शोध कार्य (रिसर्च) करने का साहस नहीं किया । हुआ यूँ कि बाबा बुल्के इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम. ए. करना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने हिन्दी विभाग के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. धीरेन्द्र वर्मा को पत्र लिखा जिसका उन्हे कोई उत्तर नहीं मिला । इस बीच उन्होंने कोलकाता विश्वविद्य़ालय से संस्कृत में बी.ए. कर लिया और हिन्दी में एम. ए. करने के लिए खुद इलाहाबाद पहुँच गए । विभागाध्यक्ष डॉ. धीरेन्द्र वर्मा का मानना था कि कोई भी विदेशी हिन्दी में एम. ए. कर ही नहीं सकता । उन्होंने बाबा बुल्के की परीक्षा लेने के लिए बाबा तुलसीदास के दो पदों का अर्थ बताने के लिए कहा । बाबा बुल्के के द्वारा उन पदों की व्याख्या सुनकर डॉ. धीरेन्द्र वर्मा दंग रह गए और बाबा बुल्के को हिन्दी में एम. ए. करने की अनुमति मिल गई ।
जब 1947 ई. में बाबा बुल्के ने हिन्दी में एम. ए. कर लिया तो विभागाध्यक्ष डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने ही उन्हे डॉक्टरेट के लिए रामकथा के विकास पर शोध करने के लिए प्रेरित किया । रामकथा और तुलसी बाबा बुल्के के प्रिय विषय थे लेकिन हिन्दी के प्रेमी बाबा बुल्के ने कहा कि वे अपना शोध – प्रबंध हिन्दी में ही लिखेगें । उस समय हमारे देश के विश्वविद्यालयों में सभी विषयों के शोध प्रबंध अंगरेजी में ही प्रस्तुत किए जाने का नियम प्रचलित था । हिन्दी में एम. ए. करने के बाद हिन्दी के लिए यह उनकी दूसरी जिद थी । इसका परिणाम यह हुआ कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति डॉ. अमरेन्द्रनाथ झा को इलाहाबाद विश्वविद्यालय में रिसर्च संबंधित नियमों में संशोधन करना पड़ा । इस तरह से 1949 ई. में डी. फिल. की उपाधि के लिए प्रकाशित उनका शोध – प्रबंध ”रामकथा उत्पत्ति एवं विकास ” हिन्दी में लिखित पहला शोध-प्रबंध बन गया । इतना ही नहीं, इसके बाद उत्तर भारत के सभी विश्वविद्यालयों में हिन्दी में शोध की अनुमति प्रदान की जाने लगी ।
बाबा बुल्के का शोध – प्रबंध ” रामकथा उत्पत्ति एवं विकास ” शीर्षक से प्रयाग विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित हुआ । इसके बाद उन्हे तुलसी की ऐसी लत लगी की आगे भी 12 वर्षों तक वे राम-कथा पर ही शोध करते रहे । वास्तव में, बाबा बुल्के का शोध – प्रबंध ” रामकथा उत्पत्ति एवं विकास ” राम-कथा संबंधी तथ्यों का विश्वकोश है । राम-कथा की ऐसी जाँच-पड़ताल बाबा बुल्के से पहले न किसी भारतीय ने की थी और न ही किसी यूरोपीय ने । पाश्चात्य -जगत के विद्वानों के शोध एवं विश्लेषण की अद्भुत क्षमता का पूरे विश्व में लोहा माना जाता है किन्तु गुलाम राष्ट्रों के प्रति उनकी दृष्टि हमेशा औपनिवेशिक ही रही है । लेकिन बाबा बुल्के पाश्चात्य -जगत के अन्य सभी विद्वानों से अलग थे । उन्होंने पहले भारतीय संस्कृति को अपना हिस्सा बनाया, उसके मर्म को सम्पूर्णता में ग्रहण किया और फिर उसका विश्लेषण किया । उन्होंने ही सबसे पहले यह बताया कि रामकथा सिर्फ भारत में नहीं बल्कि सदियों से पूरे एशिया महाद्वीप में प्रचलित थी । उन्होंने भारत में तमिल, तेलगु, मलयालम, कन्नड़, कश्मीरी, सिंहली, बंगला भाषा में उपलब्ध रामकथा के साथ-साथ एशिया के कई देशों जैसे तिब्बत, खोतान (चीन), हिन्देशिया (इण्डोनेशिया),हिन्दचीन,श्याम (थाईलैण्ड), ब्रह्मदेश (म्यांमार) में प्रचलित रामकथा के अलग-अलग रूपों को संगृहीत किया और फिर उनका तुलनात्मक वैज्ञानिक विश्लेषण किया ।
बाबा बुल्के का मानना है कि महर्षि वाल्मीकि रचित राम-कथा उत्तम साहित्य है किंतु तुलसी की राम-कथा भक्ति का अद्वितीय उदाहरण है । अपने शोध के द्वारा उन्होंने बताया कि राम-कथा में ‘राम’ का चरित्र महर्षि वाल्मीकि की कोरी कल्पना नहीं हैं बल्कि यह कहानी तो सदियों से गायन परम्परा द्वारा लोगों को सुनाई जाती रही थी । रामकथा के विकास का उन्होंने तर्कपूर्ण विश्लेषण किया है कि कैसे राम की कथा गायन-परंपरा से लिखित रूप तक पहुँची , इस दौरान राम -कथा में जो कुछ भी उसमें जोड़ा गया या बदला गया उसका क्रमिक विकास कैसे हुआ ? इतना ही नहीं उन्होंने राम एवं अयोध्या के ऐतिहासिक होने के कई संकेत भी दिए हैं । रामकथा का यह तर्कपूर्ण वैज्ञानिक विश्लेषण भारत के लिए ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के लिए बाबा बुल्के की अतुलनीय भेंट है ।
हिन्दी वाङ्ग्मय को बाबा बुल्के की एक और अनुपम भेंट ”अंगरेजी हिन्दी शब्दकोश” है । राम कथा की तरह शब्दकोश-जगत में यह भी अंगरेजी शब्दों के अर्थ एवं उनका सही उच्चारण जानने की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है । इस शब्दकोश की विशेषता यह है कि एक ही शब्द के संदर्भ के आधार पर कई अर्थ दिए गए हैं जिससे अलग-अलग व्यवसाय क्षेत्र के व्यक्ति के लिए संदर्भ के अनुसार अर्थ को समझना आसान होता है । उच्चारण की दृष्टि से इसे अंगरेजी हिन्दी भाषा का मानक कोश माना जाता है । इस शब्दकोश की इन्ही विशेषताओं के कारण उन दिनों इसे भारत सरकार के केन्द्रीय कार्यालयों एवं सभी भारतीय दूतावासों के साथ-साथ कई राज्य सरकारों के कार्यालयों में भी अधिकारिक कोश के रूप में प्रयोग किया जाने लगा किन्तु दु:ख की बात यह है कि आज यह शब्दकोश बाजार में ढूंढे नहीं मिलता है । 21वीं सदी की पीढ़ी ने तो इसके बारे में सुना भी नहीं होगा ।
अनुवाद के क्षेत्र में भी बाबा बुल्के ने जो काम किया वह अप्रतिम है । सम्पूर्ण बाइबल का अनुवाद इनकी महती योजना थी, लेकिन दुर्भाग्य से वे इसे पूरा नहीं कर पाए । उनका कहना था कि भारत के चर्चों में बाइबल को अंगरेजी में पढ़ा जाता है जिसमें उच्चारण में गलतियों की भरमार होती है । बाबा का कहना था कि गलत पढ़ने से तो अच्छा है कि बाइबल का हिन्दी अनुवाद पढ़ा जाए । अत: उन्होंने बाइबल के पहले भाग ‘ऑल्ड टेस्टामेंट’ के लैटिन अनुवाद का ‘पुराना विधान’ के नाम से हिन्दी अनुवाद किया । बाइबल के दूसरे भाग जिसे ‘न्यू टेस्टामेंट’ के नाम से जाना जाता है इसके मात्र दो भागों का हिन्दी अनुवाद ‘सुसमाचार’ एवं ‘ प्रेरित चरित’ नाम से प्रकाशित हुआ । उन्होंने चर्च में होने वाले धार्मिक पाठों का अनुवाद भी तीन खण्डों में प्रकाशित किया । अपने अंतिम समय में बाबा के पैर की एक उंगली में गैगरिन हो जाने के कारण उनका पैर काटने की नौबत आ गई । इतनी बुरी खबर पाकर भी बाबा हिम्मत नहीं हारे । उन्होंने संतोष कर लिया कि पैर नहीं रहेगा तो क्या हुआ जीवित तो रहूँगा । जीवन बचा तो बाइबल का अनुवाद भी पूरा हो जाएगा । अस्पताल में लेटे- लेटे बाबा ने अपने इस अधूरे काम को पूरा करने के लिए ईश्वर से बस 400 दिनों की जिन्दगी माँगी थी । तब मन्दिर और चर्च दोनों में उनके जीवन के लिए प्रार्थना की जा रही थी । पर नियति न रूकती है और न बदलती है । बाबा बराबर कहते थे कि ‘ऊपर जा कर मैं तुलसीदास से मिलना चाहता हूँ ।’ 17 अगस्त 1982 को 73 वर्ष की आयु में जीवन ने बाबा को तुलसी से मिलने के लिए काया से मुक्त कर दिया ।
बाबा बुल्के ने हिन्दी को अपने शोध, अनुवाद एवं कोश से तो समृद्ध किया ही, साथ ही वे हिन्दी भाषा की खूबियों के कारण हिन्दी के प्रबल पक्षधर थे । उन्होंने हिन्दी के पक्ष में हर मंच से वकालत की और भारत में भाषा-समस्या का समाधान भी सुझाया । वे कहते थे कि ”दुनिया में कहीं भी ऐसा कोई विकसित स्वतंत्र देश ढूँढने पर भी नहीं मिलेगा जहाँ के नागरिक सार्वजनिक सभाओं में तथा प्रशासन के लिए एक विदेशी भाषा की शरण लेते हैं । क्या भारत हमेशा के लिए इसका अपवाद बना रहना स्वीकार कर सकता है ।”
प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन, नागपुर में प्रसिद्ध लेखक विष्णु प्रभाकर की अध्यक्षता में हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाए जाने का प्रस्ताव पारित किया गया । तब बाबा ने विष्णु प्रभाकर से कहा कि ” विष्णु जी, राष्ट्र संघ में हिन्दी को स्थान मिले यह प्रस्ताव तो आपने पास करवा लिया लेकिन अपने देश में हिन्दी कहाँ है, यह भी सोचिए । जिसकी देश में पूछ न हो उसे विश्व में कौन पूछेगा ?” बाबा का प्रश्न आज भी हर भारतीय से है जिसका उत्तर किसी के पास नहीं है । बाबा का यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित ही है ।
कहा जाता है कि लॉर्ड थॉमस मैकाले ने 1835 में अंग्रेजी को भारतीय शिक्षा का मुख्य माध्यम बना डाला । मैकाले का मानना था कि दुनिया का सर्वश्रेष्ठ ज्ञान अंग्रेजी और यूरोपीय सभ्यता के पास है । हालांकि मैकाले की इस सोच से कई यूरोपीय विद्वान ही सहमत नहीं थे । वहां के कई विद्वानों ने अपनी पूरी जिंदगी भारत के ज्ञान-विज्ञान और भाषा को संवारने में लगा दी । फादर कामिल बुल्के इन्हीं विभूतियों में से एक थे । उन्होंने वैज्ञानिक आधार पर हिन्दी शिक्षा का समर्थन करते हुए लिखा कि ”मस्तिष्क में परिपक्वता आने से पहले किसी विदेशी भाषा के माध्यम से जानकारी तो प्राप्त की जा सकती है, किंतु मस्तिष्क का स्वाभाविक विकास असम्भव-सा है ।” बाबा भारत में संस्कृत और हिन्दी की उपेक्षा से कई बार आहत हुए थे । वे संत जेवियर्स कॉलेज, राँची में हिन्दी और संस्कृत विभाग के अध्यक्ष थे किंतु उन्होंने देखा कि छात्रों को ज्ञान की पिपासा नहीं है बल्कि उन्हे बस डिग्री लेने से मतलब है । दु:खी होकर उन्होंने संस्कृत पढ़ाना छोड़ दिया । कई बीमारियों को लगातार झेलने के बाद भी उन्होंने अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा एवं अपने जीवन का प्रत्येक क्षण अध्ययन और शोध कार्यों में लगा दिया । साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए भारत सरकार द्वारा 1974 ई. में उन्हे देश का तीसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘पद्मभूषण’ प्रदान किया गया । तुलसीदास के प्रेम में पड़कर 1951 ई. में उन्होंने बेल्जियम की नागरिकता त्यागकर भारत की नागरिकता ग्रहण कर ली थी ।
बाबा बुल्के को अपने लिए ‘फादर’ के स्थान पर ‘बाबा’ संबोधन ज्यादा प्रिय था । वे कहते थे कि हिन्दी एक समृद्ध भाषा है उसके पास हर रिश्ते के लिए ‘एक अलग शब्द’ है । ‘फादर’ के लिए हिन्दी में जब ‘बाबा’ शब्द है तो उन्हें ‘फादर’ नहीं ‘बाबा’ बुलाया जाना चाहिए । ‘इंग्लिश’ के लिए आज भी प्राय: हिन्दी में ‘अंग्रेजी’ शब्द लिखा जाता है । बाबा बुल्के का कहना था कि उच्चारण की दृष्टि से यह वर्तनी गलत है इसे ‘अंगरेजी’ लिखा जाना चाहिए । भारत में हिन्दी की स्थिति पर दु:खी होकर उन्होंने अपने एक व्याख्यान में हिन्दी की स्थिति की तुलना बुद्धि, बल और भक्ति के अनुपम आगार राम भक्त हनुमान की क्षमताओं से की थी । उन्होंने कहा कि जैसे हनुमान जी बालकाल में मिले ऋषि- श्राप के कारण अपनी क्षमताओं को भूल गए थे वैसे ही ”अपनी प्राचीन संस्कृति के विषय में अधिकांश भारतीय बुद्धिजीवियों का अज्ञान, एक विदेशी भाषा के प्रति उनका मोह, हिन्दी वालों में अपनी भाषा के प्रति उदासीनता, यह सब देखकर अनायास ही किसी शाप की कल्पना मन में उठती है ।” भारतीय जनमानस जिस दिन अपने सच्चे इतिहास को जानेगा- समझेगा, अपनें पूर्वजों की थाती पर स्वाभिमान करना सीखेगा उसी दिन भारतीय जानमानस की मुक्ति इस शाप से होगी । हमने पढ़ा मात्र है कि भारत को विश्व-गुरु कहा जाता है इसका मर्म आजाद भारत की जनता जानती ही नहीं । आज की युवा-पीढ़ी के लिए भाषा, लिपि, संस्कृति खोखले शब्द हैं । ये शब्द उनकी पहचान से किस प्रकार जुड़े है वे नहीं जानते । उन्हे नहीं पता कि अपनी पहचान खोने का मतलब क्या है । आज का युवा वर्ग गले में लटकते मल्टीनेशनल कंपनी के आई- कार्ड को ही अपनी पहचान मानता है और इस पहचान से वह संतुष्ट भी है । खैर !
जिसे तुलसीदास की रचना से प्रेम हो वह राम से भी विरक्त कैसे हो सकता । लेकिन बाबा बुल्के की दृष्टि इतनी साफ थी कि क्रिश्चन होते हुए भी उनकी ईसा-भक्ति और तुलसी-प्रेम में कहीं संघर्ष नहीं मिलता है बल्कि, बाबा बुल्के के जीवन के घटनाक्रम को देखकर मुझे ऐसा लगता है मानो खुद जीजस ने ही बाबा बुल्के को तुलसी के हवाले कर दिया कि जाओ तुम तुलसी की भक्ति और मानस के बहाने प्रेम का संदेश दुनिया में प्रचारित करो । वे धर्म से ईसाई थे, उनका कर्म राम-कथा थी और वे अनुयायी तुलसी के थे । भारतीय संस्कृति एवं तुलसी के समन्वय-तत्व को मानो उन्होंने घोलकर पी लिया था और उसे अपनी अस्थि मज्जा में बसा लिया था । तुलसी भक्त एवं हिन्दी के धर्मयोद्धा ऋषितुल्य बाबा कामिल बुल्के को मेरा शत-शत नमन ।
[संदर्भ ग्रंथ : बुल्के स्मृति ग्रंथ ]
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