अजय कुमार ।I
आपको अगर ये पता लगे कि हिंदी में कोई ऐसा भी साहित्यकार हुआ है ,जो अपने जीवनयापन के लिए जब किसी मामूली होटल में बर्तन धो रहा था, वेटरगिरी कर रहा था और रेलवे स्टेशन पर कुलीगिरी कर रहा था,ठीक उसी समय उसकी लिखी कहानियां, धर्मयुग जैसी पत्रिका में छप रही थी, एक ऐसा साहित्य कार जिसने अपने रचनाकाल में पूरे इकत्तीस उपन्यास, बीस कहानीसंग्रह एवं दस ग्यारह अन्य लेख, निबन्ध और संस्मरणात्मक पुस्तकें लिखीं मगर जिसे फिर भी न उतनी मान्यता मिली, न ही कभी उतनी प्रतिष्ठा। ऐसे ही यशस्वी लेखक थे शैलेश मटियानी।
इन बातों से बढ़ी हुई आपकी उत्सुकता के शमन के लिए ही मैं उनसे जुड़ी कुछ बातें आपके समक्ष रख रहा हूं,जिनके बारे में जान कर कोई भी पाठक मेरी तरह ही आश्चर्य में पड़ जायेगा। शैलेश मटियानी का जन्म अल्मोड़ा जनपद के बाड़ेछीना गांव में १४ अक्टूबर, १९३१ को हुआ था,उनका आरंभिक जीवन संघर्षों से भरा था, केवल बारह वर्ष की उम्र में उन्होने अपने माता पिता को खो दिया,चाचा लोगों के संरक्षण में उनकी पढ़ाई लिखाई करायी पर वो अधूरी छूट गयी,उन्हे कम उम्र में ही पहले बूचड़ खाने और फिर जुएं घर में काम करना पड़ा। उनका लेखन करीब सन् पचास से आरंभ हुआ,अमर कहानी और रंगमहल जैसी पत्रिकाओं से।शुरुआत में वो कविताएं लिखते थे,फिर एक समय ऐसा भी आया जब नागार्जुन ने उन्हे भारत का मैक्सिम गोर्की कह कर पुकारा था, आपको शायद विश्वास न हो उन्हे रेणु से भी पहले आंचलिक भाषा और संस्कृति को अपने लेखन में स्थान देने का गौरव दिया जाता है। उनका उपन्यास “बोरिवली से बोरीबंदर तक” (१९५९) समीक्षकों की राय में इसकी एक ज्वलंत मिसाल है । ‘हंस ‘पत्रिका के पुर्नउद्धारक और नयी कहानी मूव मैंट के अग्रणी साहित्यकार राजेन्द्र यादव ने शैलेश मटियानी को याद करते हुए, उनके निधन के पश्चात् एक साक्षात्कार में कहा था, कि मटियानी समाज की तलछट से निकले हुए एक मौलिक साहित्यकार थे,जिनमे शुद्ध भारतीयता और पर्वतीय क्षेत्र की सादगी दिखाई पड़ती है। प्रेमचंद की भांति ही जिन में निरंतर रचते रहने का सामर्थ्य था, यही नहीं उनके अनुसार शैलेश कहानियों के क्षेत्र में प्रेमचंद,स्वयं उनसे, और नयी कहानी के दूसरे बड़े हस्ताक्षर मोहन राकेश से भी आगे थे, क्योंकि उनको दस से अधिक कालातीत कहानियां लिखने का श्रेय प्राप्त है,जबकि उनके अनुसार प्रेमचंद ऐसी पांच सात, मोहन राकेश चार और वो केवल ऐसी दो तीन कहानियां ही अपने लेखकीय जीवन में लिख पाए।
उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध कहानियां, ‘अर्द्धांगिनी’ ,’चील’ ,’डब्बू मलंग’ , ‘महाभोज’, ‘जुलूस’, ‘दो दुखों का एक सुख’ , ‘रहमतुल्ला’ और ‘मिट्टी’ इत्यादि हैं,जबकि ‘बोरिवली से बोरीबंदर तक’ के अतिरिक्त उनके कुछ और प्रसिद्ध उपन्यास हैं, ‘गोपुली गफूरन’, ‘कबूतरख़ाना’ , ‘हौलदार’, ‘तिरिया भली न काठ की’ , ‘सर्पगंधा’ और ‘सावित्तरी’। जहां तक उनके व्यक्तित्व ओर आदतों का सवाल है,तो देवेन्द्र मेवाड़ी ने अपनी.किताब” भूले बिसरे संस्मरण” में उनके बारे में लिखा है, कि शैलेश अपने पास एक टीन का बक्सा रखते थे,और वो जब उनके पास.आते थे तो कहते थे, “देवेन् यह टीन का बक्सा ही मेरा पूरा घर और दफ्तर है, इसमें किताबें भी हैं , कुछ पत्रिकाएं हैं,लिखने के लिए कागज ,पेन पेंसिल, है,और चादर लोटा, साबुन तेल कंघा इत्यादि सब है। बस तुझसे तो एक दरी चाहिए, सोने के लिए ।”
यह भी सचमुच आश्चर्यजनक है कि वो सिर्फ मैट्रिक पास थे,वो भी एक बार पढ़ाई छूट जाने के बाद, दूसरे दौर में पास कर पाये थे, अंग्रेजी का ज्ञान भी जिन्हे न के बराबर था, इसके बावजूद भी उनकी लेखनी का जादू उनकी हर रचना में स्पष्ट दिखता है। अंग्रेजी से दूर रहने का एक फायदा भी हुआ था उन्हे, उनके लेखन में अज्ञेय या निर्मल वर्मा की तरह पाश्चात्य और कोलोनियल पास्ट का कहीं भी स्पर्श नहीं था, बल्कि वो वैचारिक रूप से बाद में हिन्दू सनातनी वैचारिकता से जुड़ गये थे, जिसकी वजह से राजेन्द्र यादव ने उन्हे लेखक के तौर असाधारण रूप से प्रतिभावान मगर वैचारिक रूप से कन्फ्यूज्ड माना है,और शायद यही एक बड़ा कारण रहा है कि उनके यूं उपेक्षित रह जाने का। ज्ञातव्य है उनके समय में, मार्क्स, प्रगतिशील साहित्य,धर्म निरपेक्षता को ले कर बहुत खेमेबाजी थी, और सोशलिज्म और सर्वहारा वर्ग से जुड़ी सोच से प्रतिबद्ध लेखकों को ही सही मायनो में लेखक समझा जाता था, फिर चाहे वो प्रेमचंद हों, रेणु हों, गजानन माधव मुक्तिबोध हों, त्रिलोचन हों, नागार्जुन हों,मोहन राकेश हों,राजेंद्र यादव हों या फिर कमलेश्वर हों।इस सम्बन्ध में, मैं इस बात को यूं रखना चाहूंगा कि शैलेश मटियानी को मैं टोबा टेक सिंह की तरह नो मैन्स लैंड में खड़े देखता हूं, सच तो ये है वो एक बहुत मामूली आदमी थे जो शायद उस मामूलीपन से उपजी मजबूरियों और पीड़ा से लेखक बन गये।उन्हे न तो महादेवी, प्रसाद, मैथिली, दिनकर, यशपाल जैनेन्द्र कुमार, हजारी प्रसाद जैसे वर्ग से जोड़ा जा सकता है और न अज्ञेय, निर्मल वर्मा जैसे दूसरे वर्ग से…।
शैलेश मटियानी के रचना शिल्प और कथ्य की भावभूमि की बात करें तो जहां उसमें एक तरफ कुमायूं की लोक कथाओं का आदिम सौंदर्य है,तो दूसरी तर.फ मुंबई के फुटपाथों पर पल रहे जीवन का संघर्ष और कमाठीपुरा की बाजारू औरतों का दर्द है, उनकी एक बात ही काफी है यह समझने के लिए, उन्होने कहा था, वेश्या को विवशा कहा जाए तो हम ज्यादा बेहतर ढंग से उनको समझ सकते हैं, उनका उपन्यास ‘गोपुली गफूरन’ स्त्री की विवशता पर लिखा एक मील का पत्थर उपन्यास है, जो पाठक को स्तब्ध कर देता है। उनके लेखन में निम्न मध्यम वर्ग की लाचारी, कुन्ठाएं और उनका तिल तिल पिसता मन तो शामिल है पर वो किसी विचारधारा की कट्टरता और भार से मुक्त एक सहज सरल लेखन है जिसके पीछे उनके अपने जीवन का अनुभव और संघर्ष शामिल है, उनकी कहानी ‘अर्द्धांगिनी’ दाम्पत्य जीवन पर लिखी सर्वश्रेष्ठ कहानी मानी गयी है, जिसमें न तो आपसी कलह है, न कोई त्रिकोण, फिर भी वो स्त्री पुरूष के सम्बन्धों की संवेदना और प्रेम से जुड़े सवालों को समग्र रूप रूप से अपने कथानक में समेटती चलती है।
मेरी नज़र में वो मंटो की तरह के वो जमीनी लेखक थे जिन्हे जीवन भर अपनी जमीन नहीं मिली, सिवाय एक सांत्वना के, आज हर वर्ष उत्तराखंड सरकार उनके नाम पर एक साहित्यिक पुरूस्कार देती है, मगर उनका दुर्भाग्य देखिए वो निराला, मंटो , भुवनेश्वर और बाद में स्वदेश दीपक की तरह लगभग विक्षिप्त अवस्था में २४ अप्रैल,सन् २००१ में मृत्यु को प्राप्त हुए। कहते हैं उनके छोटे लड़के की हत्या और बाद में उसको ले कर चले मुकद्दमे में वो मानसिक रूप से बिल्कुल खर्च हो गये थे।
Leave a Comment