सूफिया ज़ैदी II
इधर पड़े हैं खंजर तो आरी कहाँ है,
वतन की खातिर अब ज़िम्मेदारी कहाँ है।
फैला है इस.कदर ये खौ.फ क्यूँ वतन में,
हवा में नफ़रतों की चिंगारी कहाँ है।
है हौसला आँधी में करें दीया रौशन,
हिम्मत हमारी अभी हारी कहाँ है।
करते हैं लोग मातम हाल पर सब मेरे,
चेहरे पर मगर उनके सोगवारी कहाँ है।
रहती है उदास ‘सूफिया’ यादों में तेरी,
दिन अपना कहाँ रात हमारी कहाँ है।
2-
प्यार पर मुझे अपने इत्मिनान है,
इन्तज़ार ही शायद मेरा इम्तिहान है।
कहता नही कभी लबों से कुछ भी,
दर्द- ए- दिल मेरा बेज़ुबान है ।
नही जगह दी मैने किसी अपने को भी,
सूना ही पड़ा मेरे दिल का मकान है।
होता ही नही मिलन यहाँ किसी का,
दुश्मन प्यार का ये सारा जहान है।
गमों को अश्.कों मे बहाकर ‘सूफिया’
लबों से मुस्कुराना बहुत आसान है।
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