कहानी

राग मारवा

फोटो : साभार गूगल

अजय कुमार II

पूरब अपनी साइकिल पर बहुत ज़ोर से पैडल मारे जा रहा था मगर आज यह रास्ता जैसे खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। कलामंदिर वैसे भी बहुत दूर पड़ता था, उसके कॉलिज ग्राउन्ड से।उसे आज अपने सामने की फैली कोलतार की ये लंबी सड़क पूरी हल्दीघाटी का मैदान सी लग रही थी। अपनी आँखों के आगे आज उसे बस नेहा ही बैठी दिख रही थी, अपने एक हाथ में तानपुरा थामे अपनी मीठी आवाज़ में गाती हुई।

वह सिर्फ दो महीनों के लिए ही आई थी उसके अपने शहर में उसके आने भर से ही जैसे एक तब्दीली-सी आ गई थी उसके अपने रोजमर्रा के एकरस छात्र जीवन में एकरसता की जगह उत्सुकता और रोमांच ने ले ली थी। नेहा सामने होती थी तो जैसे ये गर्मी के दिन उसे ठंडे झोकों से लगने लगते थे।

पिछली गली में रह रहे उसके फिजिक्स के सर दीपक गौतम के छोटे भाई की लड़की थी नेहा। इलाहाबाद में रहती थी। अपने ताऊ जी के बार-बार जिद्द करने से वह अपनी दो महीनों की गर्मियों की छुट्टियों में आई थी यहाँ रहने के लिए। वह भी इस शर्त पर कि उसका संगीत का अभ्यास, यहाँ आ जाने पर भी, एक भी दिन के लिए नहीं छूटेगा। शास्त्रीय संगीत में बहुत रुझान था उसका संगीत में ही बी.ए. कर रही थी वह।

दीपक सर ने भी उसे इस बात का पक्का भरोसा दिलाया था और दिलाते भी क्यूँ नहीं, उनके लिए ऐसा करना एक बहुत ही सरल काम था। उनके खास मित्र माथुर साहिब ही खुद निदेशक थे इस कला मंदिर संस्था के। दो महीनों के लिए उन्होंने नेहा का दाखिला कला मंदिर में करा दिया था। और उसे रोज़ कला मंदिर से लाने और वापस ले जाने की ड्यूटी उन्होंने अपने प्रिय शिष्य पूरब को सौंप दी थी। अपनी साइकिल पर जोर-जोर से पैडल मारते और नेहा के बारे में सोचते आखिर पूरब पहुँच ही गया था कलामंदिर के अंदर शाम का वक्त था। सेमल के पेड़ के तने पर अपनी साइकिल टिका कर वह लगभग भागता हुआ पहुँचा था उस कमरे के खुले दरवाजे के बाहर, जिसके भीतर बैठी नेहा अभी भी गा रही थी। अपना तानपुरा हाथों में लिए। उसकी मीठी आवाज़ उसके कानों से टकराते ही जैसे सीधे उस के दिल में उतरने लगी थी-

‘आज मंदरवा आये पिया… निछावर कर दूँ तन मन धन वा वा वा….’


नेहा की दोनो आँखें बंद थी, उसके गोरे माथे पर, गालों पर गले में पसीना चमक रहा था, उसके बालों की एक लट रह-रह कर झूल रही थी उसके उजले चेहरे पर गले में पतली सी अस्त-व्यस्त उसके सोने की जंजीर कितनी भली दिख रही थी। दोनों कानों की बालियाँ जैसे नेहा के काले गहरे बालों में एक लुका छुपी का खेल खेल रही थी और उसकी आवाज़ जैसे उस खाली कमरे को भरे डाल रही थी। पूरब कमरे की चौखट से लगा हुआ, मंत्रमुग्ध सा, उसके गायन को सुने जा रहा था।

एक स्वर तरंग जैसे उसके पूरे शरीर में खून के साथ दौड़ लगा रही थी। वह एकटक नेहा को निहारे जा रहा था। हालांकि उसे शास्त्रीय संगीत के ‘सा’ का भी नहीं पता था पर आते वक्त नेहा ने उसे पूरे विस्तार से बताया था कि क्या होता है राग मारवा। मुख्य स्वर रिषभ और धैवत हैं इस राग के जिन पर बार-बार ठहरा जाता है। मध्य सप्तक में होता है इस राग का फैलाव और यह भी कि राग तो संक्षिप्त है पर है बहुत मीठा सौंदर्य और मिलन का राग माना जाता है मारवा। उसे नेहा की बातें ज्यादा समझ में तो नहीं आई थीं पर उसे सुनते हुए वह महसूस यही कर रहा था कि उसके भीतर अनवरत जैसे एक रस का झरना गिर रहा था। उसका गायन सुनते-सुनते वह इतना खो गया था कि उसे पता ही नहीं लगा कि नेहा ने कब गाना खत्म कर दिया था। उसे होश तब आया, जब उसे नेहा की हँसती हुई आवाज़ ठीक अपने बगल में सुनाई दी थी… पूरब… क्या हुआ…. कहाँ गुम हो गए तुम?”

नेहा की आवाज़ सुन कर एकदम चैतन्य हो गया था पूरब… ‘तुम तो यार… जैसे राग मारवा में ही उतर गये… अपने इन स्पोर्ट्स जूतों समेत, वाह भई… वाह… मेरी आवाज़ का इतना असर…’ पूरब जवाब में एक शब्द भी नहीं बोल पाया। कहता भी क्या कि वह राग मारवा में नहीं, नेहा के दिल में उतरना चाहता है, अपने स्पोर्ट्स जूतों समेत पर उसे पता था ये कभी भी मुमकिन नहीं है। नेहा पूरे तीन साल बड़ी है उससे फिर उसके दीपक सर ने तो उसे पहले ही पूरी जिम्मेदारी दे रखी थी कि वह रोज़ शाम को अपने फुटबाल कैम्प में जाते वक़्त उसे पहले कलामंदिर में छोड़ेगा और अपने फुटबाल कैंप से आते वक़्त उसे अपने साथ ले कर घर आयेगा। वह कैसे कह सकता था ऐसे में अपने मन की बात नेहा ने दीपक सर से उसकी शिकायत कर दी, नहीं नहीं, उसे कुछ भी नहीं करना ऐसा।

नेहा पूरब के स्वर में उसके बदले हुए भाव को पहचान गयी थी। वह कुछ कहता उससे पहले ही वह बहुत गंभीरता से बोल उठी… मैं जानती हूँ। क्या कहना है तुम्हें, यही न कि तुम मुझे बहुत चाहने लगे हो, मर मिटे हो मुझ पर, कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा अब तुमको, सब कुछ सूना-सूना है मेरे बिना, बस यही कहना है न तुम्हें ।’ पूरब को तो जैसे काठ मार गया था। एक शब्द भी नहीं निकला था उसके मुँह से उसने चोर नज़रों से नेहा की तरफ देखा। वह नाराज़ तो बिल्कुल नहीं लग रही थी। हमेशा की तरह शान्त और होठों पर वही मोहक-सी मुस्कुराहट, ‘मैं आज तुम्हें अपनी तरह समझाती हूँ, संगीत की ही भाषा में।

चित्रः साभार गूगल

लेकिन वह करे भी तो क्या करे हर गुजरते दिन वह पहले से और अधिक कमज़ोर पड़ता जा रहा था। उसका तो जैसे बस ही नहीं रहा था अब अपनी किसी भी बात पर हर रोज़ वह अपने ही हाथों से धीरे-धीरे निकलता जा रहा था। उसने पहली बार महसूस किया था अपने मन में किसी के लिए इतना अधिक आकर्षण नेहा एक चुम्बक की तरह उसका मन अपनी तरफ खींच लिए जा रही थी।नेहा उसके विगलित से स्वर में जैसे उसके दिल के दुखते तार का स्वर पहचान गयी थी। वह चलते-चलते एक दम रूक गई। साथ चलती चलती उसके एकदम सामने आ कर खड़ी हो गई। उसने नेहा की तरफ देखा उसकी नज़र जैसे सीधी उसके दिल में उतर गई थी कितनी सुंदर लग रही थी नेहा और कितना अज़ीब-सा भाव था उसकी आँखों में पूरब को लगा जैसे उसने उसका मन पढ़ लिया था, पर वह एक शब्द भी नहीं बोली थी। एक चुप्पी-सी पसर गई थी दोनों के बीच। नेहा कुछ पल उसको देखते रहने के बाद फिर उसके पार्श्व में आ कर चुपचाप चलने लगी और वे फिर धीरे-धीरे चलते हुए अपने घर तक पहुँच गये थे।

अपने घर पर आ कर तो पूरब और भी ज़्यादा अशान्त हो गया था। उसका जी घबराने लगा था। घर जाकर भी वह चुपचाप अपने घर में बाल्कनी में जा के खड़ा हो गया था। एक खम्बे से लग कर उससे और सहन नहीं हो रहा था अब अपने दिल में नश्तर की तरह चुभता हुआ ये दर्द वह तब तक वहाँ वैसे ही खड़ा रहा, जब तक गहरा अंधेरा नीचे ज़मीन पर नहीं उतर आया। उसकी आँखों से पानी निकलने लगा था कितना आसान होता है यूँ किसी अकेले अंधेरे कोने में चुप खड़े हो कर रोना।


अगले चार दिन भी ऐसे ही निकल गये। पूरब फिर भी कुछ नहीं कह पाया था नेहा से। पर आज सुबह से ही उसने अपना पक्का मन बना लिया था, कह ही डालेगा आज वह अपने दिल की बात चाहे जो हो। पिछली शाम से ही नेहा का कला मंदिर में गाया मारवा की बंदिश का अंतरा उसके मन में रह रह कर गूंज रहा था- ‘चुन चुन कलियाँ हार गूंथ लाऊँ, सखि रंग डारूँ लग जाऊँ गरवा’.. बस और नहीं अब बहुत मुश्किल है अपने मन की बात और मन में रखना, पर दूसरे ही पल उसके मन में ख़्याल आया, आज तो नेहा की परफॉरमेंस का दिन है, कहीं उसकी बात सुन कर उसका मन खराब न हो जाए। लेकिन आज के बाद बोलना क्या, शायद उससे मिलने तक का कोई मौका ही नसीब न हो। उसे कहना तो पड़ेगा ही अब नहीं तो शायद कभी नहीं।

वह समय से पहले ही पहुँच गया था उस दिन दीपक सर के घर नेहा बाहर बैठक में ही बैठी थी बसंती रंग की सूती साड़ी पहने। उस साड़ी में जैसे उसका अंदर और बाहर का सारा रूप एक साथ साकार हो गया था… ‘अरे… पूरब तुम आज कुछ समय से पहले नहीं आ गये क्या? कितनी तेज धूप है बाहर ऐसे क्यों खड़े हो, अंदर आ जाओ…’ और मंत्रबद्ध-सा बैठ गया था पूरब नेहा के ठीक सामने तुरंत कुछ कहना चाहता था कि फिर नेहा ही बोल उठी थी… ‘तुम बैठो… पसीने सुखाओ अपने… तब तक तुम्हारे लिए मैं खस का शरबत बना लाती हूँ।’ पूरब एकाएक कुछ कहने को उद्दत हुआ कि नेहा ने उसे फिर से रोक दिया… ‘अरे… तुम्हारी बात भी सुनूँगी मैं, ज़रा ठहरो तो सही’, और नेहा घर के अंदर की तरफ खुलने वाले दरवाज़े से भीतर चली गई थी और कुछ देर बाद लौटी तो उसके हाथों में एक ट्रे में शरबत के दो गिलास रखे थे।

पूरब शरबत का गिलास हाथ में पकड़ कर अपनी कुर्सी पर बैठा, उसे पीना भूल कर नेहा की तरफ देखने लगा था। नेहा अब कुछ अधिकार से बोली, ‘तुम शुरू क्यों नहीं करते शरबत पीना…’ पूरब एकदम से बोला… मैं कुछ कहना चाहता था आज तुमसे।’

नेहा पूरब के स्वर में उसके बदले हुए भाव को पहचान गयी थी। वह कुछ कहता उससे पहले ही वह बहुत गंभीरता से बोल उठी… मैं जानती हूँ। क्या कहना है तुम्हें, यही न कि तुम मुझे बहुत चाहने लगे हो, मर मिटे हो मुझ पर, कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा अब तुमको, सब कुछ सूना-सूना है मेरे बिना, बस यही कहना है न तुम्हें ।’ पूरब को तो जैसे काठ मार गया था। एक शब्द भी नहीं निकला था उसके मुँह से उसने चोर नज़रों से नेहा की तरफ देखा। वह नाराज़ तो बिल्कुल नहीं लग रही थी। हमेशा की तरह शान्त और होठों पर वही मोहक-सी मुस्कुराहट, ‘मैं आज तुम्हें अपनी तरह समझाती हूँ, संगीत की ही भाषा में। मैंने कहा था न, राग मारवा मुझे बहुत पसन्द है। मगर पता है क्या होता है ये राग मारवा तानपुरे को पहले मन्द्र नि से मिलाया जाता है ‘नि’ समझो मैं नेहा। मैं संगीत से जुड़ चुकी हूँ पूरब, अभी संगीत ही है मेरी जिंदगी और पता है तुम्हें, इस राग में एक स्वर वर्जित है सर्वथा ‘प’ ‘यानि कि तुम… हाँ तुम पूरब… सच तो ये है मैं इस समय कुछ भी और नहीं सोच सकती और तुम्हें भी अभी बहुत कुछ करना है अपने इस जीवन में अभी कुछ भी ऐसा मत लाओ तुम अपने मन में, जो न तो मुमकिन है और न ही शायद उचित।’ नेहा इससे आगे कुछ और नहीं बोल सकी, उसकी आँखों में पता नहीं क्यूँ यह बात कहते हुए पानी भर आया। पर पूरब उसकी उन गीली आँखों को देख नहीं सका क्योंकि वह तो उस समय सिर झुकाये चुप बैठा सिर्फ उसकी बातें सुन रहा था।

नेहा ने तुरंत ही अपने आँसू रूमाल से… इससे पहले कि वे गिर पाएं, एकदम पोंछ लिए। एक पल के लिए पूरे कमरे में एक गहरा सन्नाटा-सा छा गया था। पूरब स्तब्ध, वैसे ही सर झुकाए बैठा रहा, अपनी दोनों खुली हथेलियाँ अपने सामने फैलाए।

कहानी संग्रह : मंडी का ढाबा , प्रकाशक : सर्वभाषा ट्रस्ट

About the author

अजय कुमार

अजय कुमार

निवासी -अलवर ,राजस्थान

स्वतंत्र लेखन
प्रकाशित पुस्तक -'मैंडी का ढाबा' (कहानी-संग्रह )

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