नरेश शांडिल्य II
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वाइज़ तेरे बिहिश्त की चाहत नहीं हमें
मौला तेरी तलाश की आफ़त नहीं हमें
पत्तों के टूटने की सदा सुन रहे हैं हम
जाओ किसी के वास्ते फ़ुर्सत नहीं हमें
हैं जो भी हम,हैं जैसे भी,अच्छे हैं या बुरे
अपनी किसी लकीर से नफ़रत नहीं हमें
हम पर हैं जो भी दाग़ इन्हें यूँ ही रहने दो
इन तमग़ों के बग़ैर भी राहत नहीं हमें
कहलाए बेवफ़ा भी, सौ बदनामियाँ हुईं
सच तो है ये कि प्यार में बरकत नहीं हमें
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बस तू है तेरी आस है, हद्दे निगाह तक
छाया हुआ उजास है, हद्दे निगाह तक
मंज़र है गुलबदन-सा, तबस्सुम है जा-ब-जा
ख़ुशबू-सा इक लिबास है, हद्दे निगाह तक
उम्मीद-ए-वस्ल में हैं निगाहें ये मुन्तज़िर
इक अनबुझी सी प्यास है, हद्दे निगाह तक
यादें थिरक रहीं हैं तेरी, बन के चाँदनी
मन जैसे बिछली घास है, हद्दे निगाह तक
मुद्दत के बाद साज़ ये दिल का बजा है आज
हर गूँज में मिठास है, हद्दे निगाह तक
तेरा ही ज़िक्र आठों पहर, बात-बात पर
क़िस्सा तेरा ही ख़ास है, हद्दे निगाह तक
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तुम्हारे बाद किसी की नहीं है चाह हमें
तमाम उम्र को काफ़ी है अब ये दाह हमें
तुम्हीं पे छोड़ दिया है सफ़र अब आगे का
तुम्हीं दिखाओ तो कोई दिखाओ राह हमें
तुम्हारे साथ का ऑरा हमारे हर – सू है
लगेगी कैसे कहो अब कोई भी आह हमें
हम आँख मूँद के सोचें तुम्हें तो लगता है
ख़ुशी से चूम रही है कोई निगाह हमें
ख़ुदा ने ख़्वाब में आकर हमें ये बोल दिया
कि हैं मुआफ़ मुहब्बत में सौ गुनाह हमें
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